Friday, April 15, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 3 ]

गलियों में फेरी लगाता वह लड़का अक्सर आता। धरा की समझ में ये नहीं आता था कि ये लड़का उसका कौन है जो उसकी कच्चे दूध की सी छलकती आवाज़ कानों में पड़ते ही वह अपना सब काम-धाम छोड़ कर मुंडेर के पास दौड़ी चली आती है। ऊपर से नीचे झांकती और उसे गली में जाते हुए देखती रहती, तब तक, जब तक वो आँखों से ओझल न हो जाये। लेकिन एक अंजान पराये लड़के को वह कैसे, और क्योंकर रोके, यह समझ न पाती। एक ऐसा जवान लड़का, जिसकी आवाज़ उसके कानों में मंदिर के घंटे की तरह बजती है, जिसका  गली में से होकर गुज़रना उसकी आँखों को ताज़े पानी की लहर-सा धोता है, वह कौन है, कहाँ रहता है,क्या करता है, ये सब जानने और उससे बात करने को धरा बेचैन हो उठी।
फिर एक दिन धरा का भी अम्मा की तरह उपवास हो गया।  उपवास रोटी का नहीं, बल्कि उस लड़के को न देख पाने का। आज वह नहीं आया। सोलह साल की धरा के कान गली में उस लड़के की आवाज़ की आहट सुनने को तरसते ही रह गए। आज जैसे दोपहरी ही नहीं हुई।
जैसे किसी पोखर के किनारे कोई शरारती बच्चा शंख और सीपियाँ बीनने के लिए खोजी आँखों से घूमता है, धरा भी कच्चे दूध सी उस आवाज़ की आहटों को ऐसे ही बीनने को तरसती रह गयी। लेकिन वह नहीं आया।
और तब धरा ने जाना कि उसके आने के क्या मानी  हैं, उसी दिन धरा को ये भी पता चला कि उसके न आने के क्या मानी हैं।
अगला दिन और मज़बूत हुआ। जब रोज़ की भांति लड़के के आने का समय हुआ तो  धरा सारे काम आधे-अधूरे मन से करती मुंडेर पर नज़र जमाए रही। उसकी आवाज़ की गंध हवा में उड़ कर धरा के कानों पर किसी अदृश्य काग सी बैठ गयी थी।
न जाने कैसी शरारत सूझी धरा को कि मुंडेर पर सुबह धोकर डाली अपनी चोली हौले से उसने छत से नीचे ठेल दी। सब ऐसे हुआ जैसे किसी पिटारी वाले का खेल हो।
वह आया और उसने धरा की आँखों में अपने कल न आने का नक्शा छपा देखा।  फिर देखी उसने सामने मिट्टी में गिरी चोली। फिर उसने नज़र घुमा कर आजू-बाजू के बंद किवाड़ देखे।  फिर कंधे से उतार कर अपना बोरा एक ओर भीत से टिकाया। और संकरे दरवाजे से सीढ़ियां चढ़ कर छत पर आया।  हाथ में थी चोली।
धरा को मानो छत डोलती सी लगी। दम साध कर उधर देखा।
-"ये ...ये तुम्हारी चोली।"  उसने हाथ बढ़ा कर कहा। [ जारी ]                   
   

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