आखेट महल परकोटे से रोज़ इतनी दूर का पैदल आना-जाना आसान काम नहीं था। लेकिन फिर भी इतनी दूर की जगह जो मालिक ने उन्हें रहने के लिए दी थी, उसमें भी मालिक ने उन लोगों का ही सुभीता देखा था। दरअसल बस्ती से दूर के इस वीराने में एक पुराना छोटा देवरा था, जिस पर दीवारें और छत डलवा कर मालिक रावसाहब ने एक छोटा मंदिर बनवा दिया था। इस मंदिर की देख-रेख और साफ-सफ़ाई का काम धरा के पिता को मिला था। इसीलिये मंदिर के नज़दीक की ये जगह और ये छोटी सी कुटिया उन लोगों की हो गयी थी। बीस बरस पहले किसे पता था कि शहरों की बस्तियां गाँवों और जंगलों का खून पी-पीकर ऐसी पनपेंगी कि उन्हें निगल ही लेंगी।
यही तो दुनिया का दस्तूर है। बच्चा जन्मते ही कोई नहीं कहता कि ये मर जाये। लेकिन ये सब चाहते हैं कि जल्दी से आँगन में खेले, जल्दी से बड़ा होकर पढ़ने जाये। जल्दी से धंधे -पानी से लगे। जल्दी से दुल्हन लाए। जल्दी से बाल-बच्चों वाला हो। फिर सब कहते हैं कि हम पोते-पड़पोते देखें। अब दादा-नाना बनते-बनते बचपन और जवानी तो टिकने नहीं, बुढ़ापा आएगा ही। फिर सब कहते हैं कि बुढ़ापे से तो मौत भली !
इस तरह निकल जाते हैं बरसों-बरस। और इसीलिए शहर की इस बस्ती ने खेड़े को खाने में ले लिए बीस बरस। बाद में धरा का बाप जब जी-तोड़ मेहनत करके चार पैसे कमा लाया तो ऊपर की ये दो कोठरियां और पक्का चौबारा बने।
धरा हुई। बिटिया को पलकों पे रखता था हरदम। इसीलिए तो कुछ सुन नहीं सका।जब नज़दीक के घर की एक बुढ़िया ने चार आदमियों के सामने कह दिया कि मालिक ने मंदिर और कुटिया धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की माँ को दिया है, तो हत्थे से ही उखड़ गया, बिफ़र पड़ा एकदम।
जाकर बुढ़िया का गला ही दबोच डाला। वो तो कहो, बुढ़िया जान से नहीं गयी, केवल बेहोश होकर ही रह गयी वर्ना कौन कहता उस दिन से धरा की माँ को भक्तन? सब हत्यारे की जोरू ही कहते।
सब 'भक्तन' इसीलिये तो कहते थे कि धरा का बाप तो जाता था परकोटे पर काम करने और धरा की माँ संभालती थी मंदिर का कामकाज। साफ-सफाई, सज-संवर, पूजा-अर्चना भक्तन के जिम्मे रहती। छोटी सी धरा भी जब-तब माँ का हाथ बंटाने मंदिर में साथ जाती।
सवेरे चार बजे उठ कर पास के कुंए पर नहाना-धोना करना और फिर मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक कर झाड़ -बुहार में जुट जाना। सुबह सवेरे नहा-धोकर जब इक्का-दुक्का लोग मंदिर में आना शुरू होते, तब तक धरा की माँ सारा काम निपटा कर वापस घर का रुख कर चुकी होती। दिन निकलते-निकलते धरा का बाप भी कुंए पर नहा-निपट कर कलेवा करने आ बैठता और बस, शुरू हो जाता दिन।
लेकिन जिस दिन से पड़ौस की बुढ़िया ने वह बात कही,धरा के बापू को न जाने क्या हो गया।
[ जारी ]
यही तो दुनिया का दस्तूर है। बच्चा जन्मते ही कोई नहीं कहता कि ये मर जाये। लेकिन ये सब चाहते हैं कि जल्दी से आँगन में खेले, जल्दी से बड़ा होकर पढ़ने जाये। जल्दी से धंधे -पानी से लगे। जल्दी से दुल्हन लाए। जल्दी से बाल-बच्चों वाला हो। फिर सब कहते हैं कि हम पोते-पड़पोते देखें। अब दादा-नाना बनते-बनते बचपन और जवानी तो टिकने नहीं, बुढ़ापा आएगा ही। फिर सब कहते हैं कि बुढ़ापे से तो मौत भली !
इस तरह निकल जाते हैं बरसों-बरस। और इसीलिए शहर की इस बस्ती ने खेड़े को खाने में ले लिए बीस बरस। बाद में धरा का बाप जब जी-तोड़ मेहनत करके चार पैसे कमा लाया तो ऊपर की ये दो कोठरियां और पक्का चौबारा बने।
धरा हुई। बिटिया को पलकों पे रखता था हरदम। इसीलिए तो कुछ सुन नहीं सका।जब नज़दीक के घर की एक बुढ़िया ने चार आदमियों के सामने कह दिया कि मालिक ने मंदिर और कुटिया धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की माँ को दिया है, तो हत्थे से ही उखड़ गया, बिफ़र पड़ा एकदम।
जाकर बुढ़िया का गला ही दबोच डाला। वो तो कहो, बुढ़िया जान से नहीं गयी, केवल बेहोश होकर ही रह गयी वर्ना कौन कहता उस दिन से धरा की माँ को भक्तन? सब हत्यारे की जोरू ही कहते।
सब 'भक्तन' इसीलिये तो कहते थे कि धरा का बाप तो जाता था परकोटे पर काम करने और धरा की माँ संभालती थी मंदिर का कामकाज। साफ-सफाई, सज-संवर, पूजा-अर्चना भक्तन के जिम्मे रहती। छोटी सी धरा भी जब-तब माँ का हाथ बंटाने मंदिर में साथ जाती।
सवेरे चार बजे उठ कर पास के कुंए पर नहाना-धोना करना और फिर मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक कर झाड़ -बुहार में जुट जाना। सुबह सवेरे नहा-धोकर जब इक्का-दुक्का लोग मंदिर में आना शुरू होते, तब तक धरा की माँ सारा काम निपटा कर वापस घर का रुख कर चुकी होती। दिन निकलते-निकलते धरा का बाप भी कुंए पर नहा-निपट कर कलेवा करने आ बैठता और बस, शुरू हो जाता दिन।
लेकिन जिस दिन से पड़ौस की बुढ़िया ने वह बात कही,धरा के बापू को न जाने क्या हो गया।
[ जारी ]
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