कुछ देर पहले मैंने एक किशोर मित्र ब्लॉगर 'मंटू कुमार' की एक रचना पढ़ी।रचना बहुत संवेदन-शीलता के साथ लिखी गई थी। उसमें उन्होंने अपने किसी पुराने बचपन के मित्र को याद करते हुए भीना-भीगा नोस्टल्जिया रचा था। उसे कुछ टिप्पणी-कारों ने पसन्द करके रचनाकार का हौसला भी बढ़ाया था।
इस रचना को पढ़ते हुए मेरे मन में किशोर लेखन की एक प्रवृत्ति सहसा आकर कौंध गई। इसे मैं किशोर लेखकों के साथ बांटना चाहूँगा। रचनात्मकता में हम भावों से प्रत्यावर्तन, और पलायन का प्रयास करें। हम अपनी सोच में डूब-उतरायें, विचारों में आयें-जाएँ, और वास्तविकता व काल्पनिकता को बारीकी से मिला पायें। तब शायद रचना और सार्थक हो!
इसे ऐसे समझिये- यदि हम किसी द्रश्य में अलग-अलग पात्रों को अभिनय करते देखते हुए पायें, कि यहाँ जो बूढ़े का रोल कर रहा था वह बूढा नहीं है, जो डाक्टर की भूमिका में था, वह डाक्टरी पेशे के बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ है, तो हम अभिनय के ज्यादा बड़े फलक को स्पर्श करेंगे। लेखन में यह प्रयोग लेखक ही कर सकते हैं। मंटू अच्छा लेखक है।
इस रचना को पढ़ते हुए मेरे मन में किशोर लेखन की एक प्रवृत्ति सहसा आकर कौंध गई। इसे मैं किशोर लेखकों के साथ बांटना चाहूँगा। रचनात्मकता में हम भावों से प्रत्यावर्तन, और पलायन का प्रयास करें। हम अपनी सोच में डूब-उतरायें, विचारों में आयें-जाएँ, और वास्तविकता व काल्पनिकता को बारीकी से मिला पायें। तब शायद रचना और सार्थक हो!
इसे ऐसे समझिये- यदि हम किसी द्रश्य में अलग-अलग पात्रों को अभिनय करते देखते हुए पायें, कि यहाँ जो बूढ़े का रोल कर रहा था वह बूढा नहीं है, जो डाक्टर की भूमिका में था, वह डाक्टरी पेशे के बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ है, तो हम अभिनय के ज्यादा बड़े फलक को स्पर्श करेंगे। लेखन में यह प्रयोग लेखक ही कर सकते हैं। मंटू अच्छा लेखक है।
रचनात्मकता में हम भावों से प्रत्यावर्तन, और पलायन का प्रयास करें। हम अपनी सोच में डूब-उतरायें, विचारों में आयें-जाएँ, और वास्तविकता व काल्पनिकता को बारीकी से मिला पायें। तब शायद रचना और सार्थक हो!
ReplyDeleteVery well said govil ji .
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sahi kathan
ReplyDeleteDhanywad!
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