कुछ समय पहले मैंने एक लघुकथा लिखी थी- ग़मक ! इस रचना में टाँगे का घोड़ा एक पैर से ज़ख़्मी था, किन्तु उसके मालिक को समय और सुविधा न मिल पाने से वह घोड़े को जानवरों के हस्पताल में नहीं ले जा कर सवारियां ढोने में लगा हुआ था। एक बार अच्छी आमदनी हो जाने पर मालिक उसे चिकित्सा के लिए ले जाने का विचार बनाने लगा। घोड़ा इस बात से खुश होकर अपने कष्ट को भूल बैठा, और घोड़े के व्यवहार में आये इसी व्यवहार को भांप कर मालिक ने उसके इलाज़ पर खर्च करने का इरादा मुल्तवी कर दिया। घोड़ा फिर उसी अवसाद में डूब गया और उसने मालिक के व्यवहार में आई इस दुनियादारी को उसकी आवाज़ की ग़मक में आई कमी बता कर अपना जी हल्का किया।
आज इस लघुकथा को पढ़ते हुए "तीन" बातें मेरे मन में आईं।
-क्या "घोड़े" का सोचना रचना को कोई सार्थक निकष दे सकता है?
-दाना या घास खाकर इंसान के लिए काम करने वाले घोड़े और घोड़े के श्रम को प्रबंधित करके धन कमाने वाले आदमी में से मालिक किसे कहा जाना चाहिए?
-"निकष"आदमी या निर्जीव-सजीव पात्र से आता है अथवा इन सब की परिस्थिति पर लेखकीय संवेदनशीलता की आंतरिक व्याख्या से?
यह सब मुझे ही बुरी तरह उबाऊ लग रहा है, आप पर तो न जाने क्या बीत रही होगी?
आज इस लघुकथा को पढ़ते हुए "तीन" बातें मेरे मन में आईं।
-क्या "घोड़े" का सोचना रचना को कोई सार्थक निकष दे सकता है?
-दाना या घास खाकर इंसान के लिए काम करने वाले घोड़े और घोड़े के श्रम को प्रबंधित करके धन कमाने वाले आदमी में से मालिक किसे कहा जाना चाहिए?
-"निकष"आदमी या निर्जीव-सजीव पात्र से आता है अथवा इन सब की परिस्थिति पर लेखकीय संवेदनशीलता की आंतरिक व्याख्या से?
यह सब मुझे ही बुरी तरह उबाऊ लग रहा है, आप पर तो न जाने क्या बीत रही होगी?
पंचतंत्र की परंपरा वाले देश में हर घोड़े को सोचने का अधिकार है। वैसे भी बुरे बर्ताव से प्राणी को दर्द तो होता ही है। चलिये, मैंने पहले प्रश्न का उत्तर दे दिया, बाकी प्रश्न अन्य पाठकों के लिए ...
ReplyDeleteMain aapse isliye chhip raha tha kyonki is saal ke "sankalp"poore nahin kar paya, par mere ghode ne aapko dhoond hi nikaala to aane wale naye saal ki dheron shubhkamnayen! Is baar jo bhi sankalp loonga, vo bahut soch-samajh kar.Aapka uttar anya prashnon ka jawaab dene me bhi auron ka madadgaar hoga! Dhanyawad.
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