झाड़ू के भाग बड़े तगड़े, "हाथ" से छीन के ले गई कुर्सी।
ये भी नहीं सोचा कि बात दिल्ली की है, जिसकी कुछ शान है, मान है, आन है।
अरे अगर दिल्ली को झाड़ना ही था तो चुनाव आयोग से 'वेक्यूम क्लीनर' ही मांग लिया होता। आखिर वह भी तो क्लीन ही करता है। और दिल्ली में वेक्यूम भी तो कर ही दिया न, चाहे कुछ ही दिनों के लिए सही।
चलो, इस बार जो किया सो किया, पर अब मत करना। आम आदमी कुर्सी पर नहीं बैठा करते, कुर्सी तो बनी ही ख़ास लोगों के लिए होती है। झाड़ू को झाड़ना ही सुहाता है, झगड़े -पचड़े में पड़ना शोभा नहीं देता।
और अबकी बार सफाई कोई दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता की ही नहीं है, समूचे हिंदुस्तान की है।
पता है, सफाई से मक्खी,मच्छरों, कीड़ों-मकोड़ों को कितनी तकलीफ होती है? सड़क धुलती है तो ये दुकानों में जा बैठते हैं, दुकानें धुलती हैं तो ये बाज़ारों में भिनभिनाने लगते हैं।
जब मध्य प्रदेश और बिहार धुलते हैं तो ये दिल्ली में आ बैठते हैं। दिल्ली धुलती है तो ये अपने-अपने सूबों को अपना ठिकाना बना लेते हैं, ताकि जैसे-तैसे वनवास के दिन काटें और पांच बरस बाद फिर आ धमकें।
अब सब कुछ एकसाथ धुल गया तो ये बेचारे कहाँ जायेंगे? जब अन्ना जैसे फिफ्टी-फिफ्टी में मान सकते हैं तो आम आदमी पूरे पर क्यों अड़े? सुर आधा ही श्याम ने साधा, रहा राधा का प्यार भी आधा।
ये भी नहीं सोचा कि बात दिल्ली की है, जिसकी कुछ शान है, मान है, आन है।
अरे अगर दिल्ली को झाड़ना ही था तो चुनाव आयोग से 'वेक्यूम क्लीनर' ही मांग लिया होता। आखिर वह भी तो क्लीन ही करता है। और दिल्ली में वेक्यूम भी तो कर ही दिया न, चाहे कुछ ही दिनों के लिए सही।
चलो, इस बार जो किया सो किया, पर अब मत करना। आम आदमी कुर्सी पर नहीं बैठा करते, कुर्सी तो बनी ही ख़ास लोगों के लिए होती है। झाड़ू को झाड़ना ही सुहाता है, झगड़े -पचड़े में पड़ना शोभा नहीं देता।
और अबकी बार सफाई कोई दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता की ही नहीं है, समूचे हिंदुस्तान की है।
पता है, सफाई से मक्खी,मच्छरों, कीड़ों-मकोड़ों को कितनी तकलीफ होती है? सड़क धुलती है तो ये दुकानों में जा बैठते हैं, दुकानें धुलती हैं तो ये बाज़ारों में भिनभिनाने लगते हैं।
जब मध्य प्रदेश और बिहार धुलते हैं तो ये दिल्ली में आ बैठते हैं। दिल्ली धुलती है तो ये अपने-अपने सूबों को अपना ठिकाना बना लेते हैं, ताकि जैसे-तैसे वनवास के दिन काटें और पांच बरस बाद फिर आ धमकें।
अब सब कुछ एकसाथ धुल गया तो ये बेचारे कहाँ जायेंगे? जब अन्ना जैसे फिफ्टी-फिफ्टी में मान सकते हैं तो आम आदमी पूरे पर क्यों अड़े? सुर आधा ही श्याम ने साधा, रहा राधा का प्यार भी आधा।
वेक्यूम क्लीनर में आम आदमी का वह भाव नहीं आता जो झाड़ू में है
ReplyDeleteAapki baat shat-pratishat sahi hai, par zaraa un bechaaron ki bhi to sochen, jo kursi ke paaye pakad kar samarthan de rahe hain?
ReplyDeleteउनकी तो मजबूरी है, समर्थन के बदले जो मिलेगा वह आम जनता नहीं देख सकती। अकाउंटिंग में गुडविल का भी मूल्य होता है और (घोटाले कर के) जेल जाने से गुडविल खराब होती है। गुडविल खराब होने से अगला चुनाव जीतने में कठिनाई होती है। चुनाव हारने पर घोटाले की क्षमता नहीं रहती। चक्र है, चलाना पड़ता है। समर्थन भी उसी चक्र की एक तीली है।
DeleteAre, aapne to sab dekh liya? Ve to samajh rahe the ki koi nahin dekhta-Khaye jao-Khaye jao!
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