प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
Friday, April 1, 2011
संख्या गर्व करने की चीज़ नहीं
भारत की ताज़ा जन गणना के आंकड़े जारी हो चुके हैं। वर्तमान जनसँख्या एक सौ इक्कीस करोड़ आंकी गई है।कहा जा रहा है कि २०२५ तक भारत सबसे ज्यादा जनसँख्या वाला देश होगा। चीन की जनसँख्या वृद्धि दर हमसे कम है। भारत के दो राज्य - उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र मिल कर अमेरिका से अधिक जनसँख्या रखते हैं। एक-एक राज्य एक एक बड़े देश के बराबर लोगों को समेटे हुए है। हमें सोचना होगा कि इन में से कौन सी बात गर्व करने लायक है? देश की धरती वही है, और वही रहने वाली है। हम सब बच्चे नहीं हैं कि बड़ी गिनती सुना कर बहलाए जा सकें। यह सचिन तेंदुलकर के रन या सोनिया गाँधी के वोट नहीं हैं कि इन पर वाह-वाही की जा सके।यह उन पेटों की संख्या है जो भारत-माँ को पालने हैं। हमें ईमानदारी और बेबाकी से देखना होगा कि इन पेटों से वाबस्ता हाथों की कर्म-कुंडली कैसी है? हमें अधिकतम और उचित तम का अंतर भी समझना होगा । एक अच्छा किसान भी इतना समझता है कि यदि आम मीठे चाहिए तो बौर पर नियंत्रण ज़रूरी है। सारी बात का सबसे खतरनाक पक्ष यह है कि जन संख्या का जो वर्ग अशिक्षित और विपन्न है, उसकी तादाद ही ज्यादा बढ़ रही है। जो परिवार नियोजन के विज्ञापनों को समझ भी नहीं सकता। इस वर्ग पर विशेष ध्यान देना होगा। उम्मीद है कि हमारे कल के फिल्म निर्माता ' दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा ' जैसे गीतों के बदले ' ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना ' जैसे गीत बनने का मौका पाएंगे।
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हम मेज़ लगाना सीख गए!
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