भारत सीधे-सीधे दो भागों में बटा है। कोई कुछ भी कहे , यहाँ गाँव और शहर अलग-अलग चरित्र रखते हैं।कहने को अब शहरों की तमाम बातें गावों में जा रही हैं , पर फिर भी मानसिकता का असर मिटने में अभी सालों लगेंगे। भारत में अब राजनैतिक कपट और प्रशासनिक छल एक खुला खेल है। यहाँ अब भी ' भारत गावों का देश है, भारत की ८० प्रतिशत जनता गावों में बसती है, आदि-आदि कह कर वोट लिए जाते हैं और फिर शहरों के चौराहे पर चलते पानी के फव्वारों को गावों में पीने के पानी पर तरजीह दी जाती है। यहाँ के शासक महीने में एक रात गाँव में रुकने को बला समझते हैं और यदि ऐसा करना पड़े तो उसे देश पर अहसान की तरह करते हैं।जहाँ कहीं जनता के दबाव में गावों के विकास की कोई राशि मंज़ूर हो जाती है उसे शहरों में ही खा लिया जाता है या गावों के जो रसूखदार लोग दो कश्तियों में सवार होकर शहरों में रहते हैं वे गाँव में अपनी रिहायश की ट्रिक फोटोग्राफी या छल-छायांकन दिखा कर उसे वहीँ हज़म कर लेते हैं। स्कूलों या अस्पतालों में जिन लोगों की नियुक्ति गाँव के लिए की जाती है वे अपना सारा समय और शक्ति शहर में ट्रांसफर कराने की कोशिश या शहर में रहते हुए रोज़ गाँव में आने-जाने में ही लगाते हैं। इस से सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल ने तो नारकीय द्रश्य उपस्थित कर ही दिए हैं, गावों के दफ्तरों की उत्पादकता या कार्य क्षमता एक चौथाई रह गयी है। अमरीका इस व्यवहार और मानसिकता से पूरी तरह मुक्त है। वहां एक शहर से दूसरे शहर जाते समय रास्ते में जब गाँव पड़ेंगे तो वहां भी वही जीवन और वही जीवन-स्तर दिखाई देगा जो शहरों में है। शहर में रहने वाले वेश-भूषा और रहन-सहन में गावों के लोगों से अलग नहीं दिखेंगे। सम्पन्नता तो खैर दोनों जगह एक सी दिखाई देगी ही ।
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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