जैसे प्रकृति में और बातें अवश्यम्भावी हैं, वैसे ही यह भी स्वाभाविक ही है कि दो पीढियां सोच और कर्म के अपने विश्लेषण में असमानता रखें. यदि कोई बुजुर्ग सोचता है कि कोई युवा जीवन को जिए बिना ही दूसरे के अनुभवों से अपनी मान्यताएं बनाले, तो यह पूरी तरह संभव नहीं है.यदि युवा लोग हमारे जीवन से ही सब बातें अपना लेंगे तो वे अपने जीवन का क्या करेंगे? जब वे जी चुकेंगे तब ज़रूर वे भी वही कहेंगे जो हम आज उनसे सुनना चाहते हैं. लेकिन तब शायद हम हों - न - हों , इसलिए हम वे विचार आज ही उनसे सुन लेना चाहते है. यही "जनरेशन गैप " है. इसे मिटाया नहीं जा सकता, किन्तु अपने को इसकी छाया में जीने के लिए तैयार ज़रूर किया जा सकता है. हम सारे रास्तों पर कारपेट नहीं बिछा सकते पर अपने पैरों में जूते तो पहन सकते हैं? जो चीज़ कुदरती है, उसे बदलने में समय या श्रम लगाना बुद्धिमानी नहीं है. बुजुर्गों का शरीर और मानस ढलता हुआ होता है , इस लिए वे सुविधा-साधनों को बढाने की जगह अपनी ज़रूरतों को कम करने को तरजीह देते है. युवाओं का तन और मन उगता हुआ होता है इसलिए वे सुविधा-साधनों को बढ़ाने और उसके लिए ज्यादा प्रयत्नशील होने की कोशिश करते हैं. नज़रिए का यह फर्क दिलों में फासले लाता है.परिवारों में बिखराव लाता है. अच्छा यही है कि आज के युवा अपने निजी अनुभवों से ही सीखने का अवसर पायें. हम अपने ज़ख्मों से उनके मन में टीस ढूँढने की कोशिश न करें, यह कोशिश हमारी बेचारगी को बढ़ाएगी.
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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सही लिखा है आपने| धन्यवाद|
ReplyDeleteshayad swabhavik yahi hai ki ham jab jis peedhee me hon tab usi ke vicharon ko samajh payen.
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