Friday, April 8, 2011

सब सम्पन्नता से नहीं जुड़ा

विकास के सारे पैमाने भौतिक या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकते। समाज या देश के रूप में जब जिंदगी का आकलन होता है तब भावनात्मकता को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। नैतिकता की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। अतीत, परिस्थिति या अनुभव से भी कन्नी नहीं काटी जा सकती। भविष्य की इच्छाओं की जिजीविषा पर भी नज़र रखनी होती है। किसी अत्यंत गरीब व्यक्ति की कुटी में कोई संपन्न व्यक्ति किसी काम से जाये, वह अत्यंत गदगद होकर उसके सामने बिछ सा जाता है। घर की बेहतरीन कुर्सी झाड़-पौंछ कर उसे बैठने के लिए दी जाती है , चाहे उस पर उस समय घर का कोई अन्य सदस्य बैठा ही क्यों न हो। जो भी घर में उपलब्ध हो, खाने-पीने के लिए सामने लाने की पेशकश की ही जाती है। बल्कि उसके लिए पास-पड़ोस से मांगने में भी गुरेज़ नहीं किया जाता। अब इसके उलट कल्पना कीजिये। यदि किसी काम से वह निर्धन व्यक्ति बहुत संपन्न व्यक्ति के आवास पर जाता है पहली सम्भावना तो यही है कि यदि काम संपन्न व्यक्ति का नहीं है तो उसे बिना मिले ही लौटा दिया जाये। या काफी इंतजार करवाया जाये। बिना समय लिए आ धमकने के लिए प्रताड़ित किया जाये। खाना तो दूर,पानी के लिए भी न पूछा जाये। बैठने के स्थान को पहले देख लिया जाये कि कहीं वह उसके बैठने से गन्दा तो नहीं हो जायेगा। दोबारा आने का निमंत्रण देना अलग, उसके निकलते ही दरवाज़ा इस तरह बंद कर लिया जाये कि आवाज़ दूर तक सुनाई दे। अब नापने का कोई यन्त्र लेकर बैठिये और विकास के परिप्रेक्ष्य में आतिथ्य-शास्त्र, व्यवहार विज्ञानं, नीति शास्त्र आदि तमाम बातों को मापिये।

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...