Monday, April 4, 2011

महात्माओं की फसल

हमारा शरीर एक बेहद जटिल कारखाना है। हजारों पुर्जे और बेहद पेचीदगी से भरी क्रियाएं। लेकिन कार्य का वर्गीकरण इतना संतुलित और सटीक, कि न तो कोई पुर्जा बेरोजगार और न ही किसी के पास इतना काम, जो पूरा न हो सके। और हर बात या क्रिया की बेहद सुचारू व्यवस्था।जब तक हम किसी कारण से किसी अंग से लाचार न हों तब तक सभी के पास अपना-अपना काम। यकीनन, मानव शरीर सम्मिलित कार्य सञ्चालन का खूबसूरत नमूना है। इसी शरीर में सफाई की भी व्यवस्था, पाचन की भी, और साँस लेने छोड़ने की भी। किसी रोग के कीटाणु चले आयें तो एकबारगी उनसे निबटने की भी प्राकृतिक व्यवस्था। कितना अद्भुत सामंजस्य भरा कारोबार है, इस काया का। हर सुबह पेट मुस्तैदी से तैयार हो जाता है कि जो कुछ भी इसमेंआये तमाम तरह की क्रियाओं के बाद पूरे शरीर कि ज़रूरतों के मुताबिक फैला दिया जाये। जिस सुबह पेट में कुछ नहीं आता, सारा बदन हैरानी से इसका कारण खोजने लग जाता है। दिमाग सोच-सोच कर इस व्यवधान को सहने के रस्ते तलाशता है। पेट में अन्न न आने के कारण प्राय यह होते हैं- व्यक्ति बहुत गरीब है, दाना भी नहीं मिल रहा खाने को। व्यक्ति बहुत धार्मिक है, किसी देवी-देवता का जन्मदिन मना रहा है, इसलिए कुछ नहीं खायेगा। व्यक्ति बहुत व्यस्त है, भोजन करने का समय ही नहीं मिला। व्यक्ति किसी दुर्लभ स्थान पर है, कुछ उपलब्ध ही नहीं है खाने को। ये कारण मानवीय संवेदनाओं को समझ में आते हैं। पर एक कारण और भी है। किसी देश या समाज की सत्ता जीवन में मानवीयता का अर्थ समझ ही नहीं पा रही, इसलिए एक व्यक्ति अपने अंगों को मार्मिक क्रूरता से भोजन न दे कर देश की सत्ता को उसका कर्तव्य याद दिला रहा है। यह क्रिया महात्माओं की फसल उगाती है।

2 comments:

  1. सुन्दर ,सार्थक,जानकारीपूर्ण अभिलेख के लिए आभार. सही माने में अनशन महात्मा ही कर पाते हैं.
    मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' पर आपका स्वागत है.

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  2. mansa vacha karmana... achchha guldasta hai vicharon ka.

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