Thursday, July 10, 2014

अब लोग ब्रांडेड हैं

एक बुजुर्ग रिटायर्ड सज्जन के दो बेटे थे। दोनों शादीशुदा, और बालबच्चों वाले।
सज्जन ने अपनी पत्नी की सलाह पर घर की रसोई की जिम्मेदारी दोनों बहुओं के बीच बाँट दी।  सुबह के खाने -नाश्ते की व्यवस्था छोटी बहू देखती और सांझ की चाय-दूध-खाने की जिम्मेदारी बड़ी बहू की रहती।
दोपहर में दोनों खाली रहतीं,तो पास-पड़ोस में अपनी-अपनी सहेलियों के बीच जा बैठतीं।
छोटी बहू कहती, सुबह सबके जाने का समय होता है तो काम समय पर निपटाना होता है, रोज़ नाश्ते में क्या बनाओ, ये सोचना पड़ता है। मुसीबत तो सुबह की है, शाम को तो आराम से कुछ भी बनालो।
उधर बड़ी बहू अपने जमघट में कहती- सुबह तो सबको काम पर जाने की हड़बड़ी होती है,जो भी उल्टा-सीधा पका कर दे दो,खाकर चले जाते हैं।असली मुसीबत तो शाम की है, सब फुर्सत में होते हैं तो नख़रे दिखाते हैं। ये बनाओ, वो बनाओ।
जब देश की संसद में बजट पेश होता है तो दोनों बहुओं जैसा हाल सत्तापक्ष और विपक्ष का होता है। किसी नेता को ये नहीं सूझता कि जरा सा दिमाग़ लगाकर सोच लें कि कौन सा काम अच्छा, कौन सा नहीं अच्छा। बस,यदि अपनी पार्टी का है तब सब अच्छा, दूसरी पार्टी का है तो सब ख़राब।
और सोने पे सुहागा ये मीडिया। जब तक सबसे राय न पूछे, इसे मोक्ष नहीं मिलता।                 
      

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...