कुछ दिन पहले एक पुराने मित्र से मिलना हुआ। साथ बैठ कर उनके घर चाय पीने और बहुत सारी नई-पुरानी बातें करने के बाद वे अचानक कुछ ढूँढने लगे। यहाँ-वहां सारे में ढूँढने के बाद उनका अपने घर के लोगों पर झल्लाना शुरू हुआ। वे सबको 'उनकी' चीज़ें संभाल कर न रखने के लिए उलाहने देने पर उतर आये। आखिर मुझे बीच में बोलना ही पड़ा। मैंने कहा- "यदि तुम कुछ मुझे दिखाने के लिए, ढूंढ रहे हो, तो परेशान मत हो। मैं बाद में देख लूँगा।"
वे निराश से हो गए। झुंझलाना जारी रहा- "क्या करें? ये लोग कोई चीज़ संभाल कर रखते ही नहीं, मैं तुम्हें कुछ फ़ोटोज़ दिखाना चाह रहा था, जो अभी हमने साउथ में घूमने जाने पर खींची थीं।"
-"ओह, कोई बात नहीं, फोटो क्या देखना, तुम ही बतादो, क्या-क्या देखा?" मैंने उनके घर वालों को उनके गुस्से से बचाने के लिए कहा।
उन्हें शायद अपने देखे शहरों की फेहरिस्त लम्बी करके मुझे सबूत के साथ दिखानी थी। वे उन शहरों के बारे में मुंह से कुछ नहीं बोल पाए। मैंने सोचा, शायद उन्हें सैर से मिले आनंद से कोई सरोकार नहीं, केवल आंकड़ों का मायाजाल दिखाना था।
हाँ, कई लोग ऐसा ही करते हैं।वे ख़ुशी के क्षणों को भोगने से ज्यादा उनकी सनद रखना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कई लोग अपने 'ब्लॉग्स' पर आने वालों की संख्या से आनंदित होते हैं। वे इसके लिए "भ्रम-पूर्ण"फ्लैश डेटा जुटाते हैं। वे अपनी पसंद-नापसंद की परवाह किये बिना दूसरों की तारीफ इस प्रत्याशा में करते जाते हैं, कि अब दूसरे उनकी तारीफ करके क़र्ज़ चुकाएं। नतीजा यह होता है कि कुछ समय बाद वे अपने शौक से उकता जाते हैं, और दूकान बंद करके चले जाते हैं।[दूकान खुली छोड़ कर भी]क्योंकि उनका जुड़ाव उन रचनाओं या विचारों से तो होता नहीं, जो वे पढ़ते हैं, वे तो आंकड़ों की चौसर बिछा कर पांसे फेंकते हैं।
यदि संख्या-मंत्र की माने, तो हमें यह परिणाम मिलेंगे-
1. हलकी भाषा और ओछे विचारों वाले ज्यादा लोकप्रिय होते हैं।
2. महिलाएं, विशेषकर युवा, ज्यादा लोकप्रिय रचनाकार हैं।
3.विद्यार्थी अपनी मित्र-मण्डली की बदौलत ज्यादा सफल हैं।
4.हमारा प्रतिबद्ध राजनैतिक रुझान हमारे "वाह-वाहकारों" की तादाद खूब बढ़ाता है।
5.तकनीक का ज्यादा ज्ञान आपको 'वैचारिक ग्यानी' भी सिद्ध करता है।
हाँ, अपवाद यहाँ भी हैं।
वे निराश से हो गए। झुंझलाना जारी रहा- "क्या करें? ये लोग कोई चीज़ संभाल कर रखते ही नहीं, मैं तुम्हें कुछ फ़ोटोज़ दिखाना चाह रहा था, जो अभी हमने साउथ में घूमने जाने पर खींची थीं।"
-"ओह, कोई बात नहीं, फोटो क्या देखना, तुम ही बतादो, क्या-क्या देखा?" मैंने उनके घर वालों को उनके गुस्से से बचाने के लिए कहा।
उन्हें शायद अपने देखे शहरों की फेहरिस्त लम्बी करके मुझे सबूत के साथ दिखानी थी। वे उन शहरों के बारे में मुंह से कुछ नहीं बोल पाए। मैंने सोचा, शायद उन्हें सैर से मिले आनंद से कोई सरोकार नहीं, केवल आंकड़ों का मायाजाल दिखाना था।
हाँ, कई लोग ऐसा ही करते हैं।वे ख़ुशी के क्षणों को भोगने से ज्यादा उनकी सनद रखना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कई लोग अपने 'ब्लॉग्स' पर आने वालों की संख्या से आनंदित होते हैं। वे इसके लिए "भ्रम-पूर्ण"फ्लैश डेटा जुटाते हैं। वे अपनी पसंद-नापसंद की परवाह किये बिना दूसरों की तारीफ इस प्रत्याशा में करते जाते हैं, कि अब दूसरे उनकी तारीफ करके क़र्ज़ चुकाएं। नतीजा यह होता है कि कुछ समय बाद वे अपने शौक से उकता जाते हैं, और दूकान बंद करके चले जाते हैं।[दूकान खुली छोड़ कर भी]क्योंकि उनका जुड़ाव उन रचनाओं या विचारों से तो होता नहीं, जो वे पढ़ते हैं, वे तो आंकड़ों की चौसर बिछा कर पांसे फेंकते हैं।
यदि संख्या-मंत्र की माने, तो हमें यह परिणाम मिलेंगे-
1. हलकी भाषा और ओछे विचारों वाले ज्यादा लोकप्रिय होते हैं।
2. महिलाएं, विशेषकर युवा, ज्यादा लोकप्रिय रचनाकार हैं।
3.विद्यार्थी अपनी मित्र-मण्डली की बदौलत ज्यादा सफल हैं।
4.हमारा प्रतिबद्ध राजनैतिक रुझान हमारे "वाह-वाहकारों" की तादाद खूब बढ़ाता है।
5.तकनीक का ज्यादा ज्ञान आपको 'वैचारिक ग्यानी' भी सिद्ध करता है।
हाँ, अपवाद यहाँ भी हैं।
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