ये एक सुखद संयोग ही था, कि अपने ब्लॉग की इस सात सौ वीं पोस्ट के लिए मैं जब आपको "थैंक्स गिविंग" की बात सोच रहा था, तब दूर -दूर से 'धन्यवाद-ज्ञापन' पर्व का शंखनाद सुनाई देने लगा। लीजिये, बहती गंगा में मैं भी हाथ धोता हूँ, और मेरे साथ एक लम्बा सफ़र तय करने के लिए मैं अपने मन के अंतिम छोर से आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
अब मैं आपको यह भी बतादूँ, कि मेरे मन में इस समय जो कुछ उठ रहा है, वह बहुत सुख-संतोष वाला नहीं है। क्योंकि-
जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इसे पढ़ने वालों, इस पर टिप्पणी करने वालों, और इसे पसंद करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। मेरी स्थिति उड़ान भरते उस "सीगल" सी होती जा रही है जो आकाश की ऊंचाइयों के कारण अकेला पड़ता चला गया। सच में, घाट पर जितने लोगों की चहल-पहल दिखती थी, अब यहाँ नज़र नहीं आती। शायद लोग उड़ते जाते परिंदे को देख कर इसीलिए कुछ नहीं कहते, कि इसके पास हमारा हाल पूछने का और अपना हाल सुनाने का न तो समय है और न ही चाव। खैर, यह दंश तो हम अपने कैरियर में भी झेलते हैं, जब एक दिन ऐसा आता है कि हमारे केबिन में केवल वही साथी आने लग जाते हैं, जिन्हें हम बुलाएं। वे भी संकोच के साथ। फिर भी, जो आ रहे हैं, उनके प्रति ढेर सारा आभार।
अब मैं आपको यह भी बतादूँ, कि मेरे मन में इस समय जो कुछ उठ रहा है, वह बहुत सुख-संतोष वाला नहीं है। क्योंकि-
जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इसे पढ़ने वालों, इस पर टिप्पणी करने वालों, और इसे पसंद करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। मेरी स्थिति उड़ान भरते उस "सीगल" सी होती जा रही है जो आकाश की ऊंचाइयों के कारण अकेला पड़ता चला गया। सच में, घाट पर जितने लोगों की चहल-पहल दिखती थी, अब यहाँ नज़र नहीं आती। शायद लोग उड़ते जाते परिंदे को देख कर इसीलिए कुछ नहीं कहते, कि इसके पास हमारा हाल पूछने का और अपना हाल सुनाने का न तो समय है और न ही चाव। खैर, यह दंश तो हम अपने कैरियर में भी झेलते हैं, जब एक दिन ऐसा आता है कि हमारे केबिन में केवल वही साथी आने लग जाते हैं, जिन्हें हम बुलाएं। वे भी संकोच के साथ। फिर भी, जो आ रहे हैं, उनके प्रति ढेर सारा आभार।
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