मोनिका प्रकाशन, जयपुर से शीघ्र प्रकाशित होने वाली किताब "खाली हाथ वाली अम्मा" में कुल सोलह कहानियां हैं।
समाज की कुछ प्रवृत्तियों को अब "बीते दिनों" की बात मान कर मैंने उनपर केंद्रित अपनी कुछ तत्कालीन कहानियों को अपने जेहन से हटा दिया था। लेकिन नवनीत हिंदी डाइजेस्ट में छत्तीस साल पहले प्रकाशित कहानी 'खाली हाथ वाली अम्मा' को अतीत की जुगाली करते हुए दोबारा पढ़ने पर मुझे लगा कि समाज के लिबास से वह बदबू अभी गई नहीं है जो औरत को किसी परिवार से धन खींचने का अस्त्र मानने की "दहेज़" जैसी कुत्सित मानसिकता को अभी तक जीवित रखे हुए है।
हम किन्हीं माँ-बाप से उनकी बिटिया अपना वंश चलाने के लिए अपने सब परिजनों को साथ लेकर गाजे-बाजे के साथ नाचते-गाते हुए अपने घर ले तो आते हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि बिटिया के माँ-बाप अपनी सारी जमापूंजी इस अवसर पर हमें सौंप कर जीवनभर के लिए हमारे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँ। मतलब सीधे-सीधे हम अपने बेटे को बेचने खुले बाजार में निकल पड़ते हैं।
सरिता पत्रिका ने भी तीस साल पहले उनके यहाँ छपी मेरी एक कहानी "बहू बेटी" को तीस साल के अंतराल के बाद कुछ समय पूर्व दोबारा छापा। क्योंकि हम अभी तक अपनी और दूसरे की बेटी के बीच का अंतर नहीं भूल पाये हैं। हम अपनी बेटी को लेकर तो समय के साथ प्रगतिशील हो गए पर बहू को लेकर हम आज भी उतने ही दक़ियानूसी हैं जितने पहले कभी भी थे।
इन दोनों कहानियों के अभीष्ट और प्रासंगिकता को मैं समाप्त नहीं मान पाया। मेरी इस किताब में ताज़ा कहानियों के साथ इन पुरानी कहानियों को भी आप पढ़ेंगे।
समाज की कुछ प्रवृत्तियों को अब "बीते दिनों" की बात मान कर मैंने उनपर केंद्रित अपनी कुछ तत्कालीन कहानियों को अपने जेहन से हटा दिया था। लेकिन नवनीत हिंदी डाइजेस्ट में छत्तीस साल पहले प्रकाशित कहानी 'खाली हाथ वाली अम्मा' को अतीत की जुगाली करते हुए दोबारा पढ़ने पर मुझे लगा कि समाज के लिबास से वह बदबू अभी गई नहीं है जो औरत को किसी परिवार से धन खींचने का अस्त्र मानने की "दहेज़" जैसी कुत्सित मानसिकता को अभी तक जीवित रखे हुए है।
हम किन्हीं माँ-बाप से उनकी बिटिया अपना वंश चलाने के लिए अपने सब परिजनों को साथ लेकर गाजे-बाजे के साथ नाचते-गाते हुए अपने घर ले तो आते हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि बिटिया के माँ-बाप अपनी सारी जमापूंजी इस अवसर पर हमें सौंप कर जीवनभर के लिए हमारे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँ। मतलब सीधे-सीधे हम अपने बेटे को बेचने खुले बाजार में निकल पड़ते हैं।
सरिता पत्रिका ने भी तीस साल पहले उनके यहाँ छपी मेरी एक कहानी "बहू बेटी" को तीस साल के अंतराल के बाद कुछ समय पूर्व दोबारा छापा। क्योंकि हम अभी तक अपनी और दूसरे की बेटी के बीच का अंतर नहीं भूल पाये हैं। हम अपनी बेटी को लेकर तो समय के साथ प्रगतिशील हो गए पर बहू को लेकर हम आज भी उतने ही दक़ियानूसी हैं जितने पहले कभी भी थे।
इन दोनों कहानियों के अभीष्ट और प्रासंगिकता को मैं समाप्त नहीं मान पाया। मेरी इस किताब में ताज़ा कहानियों के साथ इन पुरानी कहानियों को भी आप पढ़ेंगे।
शुभकामनायें
ReplyDeleteDhanyawad!
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