६. मुझे अकेलेपन से बिलकुल भी डर नहीं लगता.मैं न तो इस स्थिति को दूर करने की कोशिश करता हूँ, और न ही इस से बचने की. दूसरे लोग इस बात को आसानी से इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि मैं लेखन से जुड़ा हूँ,पर फिर भी मैं इसे एक कमी ही मानता हूँ कि आप अकेले हों और लोगों के बीच न जाना चाहें.
७. मैं बातचीत में बड़ों और बच्चों के बीच कोई विभेद न करके बच्चों को भी बराबर की अहमियत देता हूँ. मैं ऐसा इसलिए करता हूँ, क्योंकि मैं बच्चों को 'भविष्य का बड़ा' ही समझता हूँ, पर इसे मैं अपनी कमी इसलिए मानता हूँ कि हमें समय से पहले दुनियादारी की कठिन बातें उन्हें बता कर उनका बचपन छीनने का कोई हक़ नहीं है. शायद लोग ऐसा इसलिए करते होंगे कि वे बच्चों को मासूम, सच्चा, भोला और निष्पक्ष समझते हैं, और पेचीदा बातें न बता कर वे चाहते होंगे कि बच्चे कुछ समय तक ऐसे ही बने रहें. पर मैं सोचता हूँ कि बच्चों की ये बातें सामयिक न होकर हमेशा रहें और बड़ों को भी ऐसा ही होना चाहिए,इसलिए ऐसी कोई सावधानी नहीं बरतता कि बच्चों से कुछ समय के लिए अलग बर्ताव किया जाये.
"राम करे दुनिया के सारे बच्चे,बच्चे बने रहें.
बड़े हुए तो ना जाने वे, फिर क्या-क्या हो जायेंगे"
८. सफाई के लिए मेरी अजीब सी संवेदन-शीलता भी मेरी एक कमी है. यह संवेदन-शीलता खाने के समय विशेष प्रभावी होती है. इसके कारण मैं खाने की मेज़ पर भी लोगों के साथ खाने से बचता हूँ. मैं अकेले और बिना बोले खाना पसंद करता हूँ. खाते समय जोर-जोर से खुले मुंह बातें करने वाले लोगों को तो मैं आसानी से सहन भी नहीं कर पाता . इस आदत की एक विचित्र बात यह है कि मैं जहाँ कुछ चीज़ों को नापसंद करता हूँ, वहीँ कुछ ऐसी चीज़ों से मुझे बिलकुल परेशानी नहीं होती जिन्हें दूसरे लोग नापसंद करते हैं. अतः लगता है कि यह शायद कुछ चीज़ों के लिए मेरी एलर्जी हो. एक सत्य घटना आपको सुनाता हूँ-
एक बार मैं मुंबई में एक भीड़ भरे होटल में दोपहर का खाना खा रहा था. मेज़ पर मेरे सामने लगभग पचहत्तर साल के एक पारसी सज्जन खा रहे थे. उन्हें जोर से छींक आई और उनके दांतों की बत्तीसी निकल कर मेरी थाली से कई चीज़ों के छीटे उडाती दाल की कटोरी में गिरी. मेरे कपडे भी खराब हो गए. वे बहुत शर्मिंदा हुए और बार-बार माफ़ी मांगते हुए मुझसे दूसरी थाली मंगवा देने का आग्रह करते रहे. पर मैंने उन्हें शर्मिंदगी से बचाने के लिए उसी थाली में, वही भोजन पूरा किया और यह जताया, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
९. मेरा हास्य-बोध इतना जटिल है कि वह कई बार निष्प्रभावी या बिना समझा हुआ रह जाता है. इसके कारण मैं व्यक्तिगत रूप से लोगों से बात करने की तुलना में 'पब्लिक स्पीकिंग' में ज्यादा सहज महसूस करता हूँ. आजकल पब्लिक स्पीकिंग भी एक कमी ही है. मैं अच्छा श्रोता भी नहीं हूँ. बोलते समय दूसरों को ज्यादा मौका नहीं दे पाता. मेरा बेटा इस कमी को यह कह कर बहुत अच्छी तरह वर्णित करता है कि मैं दूसरों को निरुत्तर करने के लिए बोलता हूँ.
१०. मुझमे जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक नजरिया नहीं है. इस कारण मुझे विश्व के सभी लोगों के प्रति सहानुभूति होती है. यही कारण है कि क्रोध तत्व मुझमे लगभग अनुपस्थित है.किसी भी बात से कोई फर्क न पड़ने वालों को लोग पहले 'संत' कहते थे पर मुझे तो यह व्यक्तित्व की कमी ही लगती है. मुझे गरीबों को देख कर लगता है कि बेचारे कैसे जी पाते होंगे? मध्यम-वर्ग को देख कर लगता है कि बेचारे सीमित संसाधनों में बेहतर जीवन-स्तर बनाए रखने में ही खर्च हो जाते हैं.और उच्च वर्ग को देख कर लगता है कि बेचारों की सम्पन्नता किस काम की, जबकि नैतिक मूल्यों में तो कंगाल हो गए. फिर नैतिक बल वालों को देख कर लगता है कि अब बेचारों के पास धन तो टिकने से रहा. पहले मैं इसे कोई कमी नहीं मानता था, पर अब जब छोटे-छोटे बच्चों तक को इस भावना के साथ देखता हूँ तो लगता है कि यह एक गंभीर कमी है. दुनिया को हंसी-खुशी का मंच क्यों न माना जाये?
No comments:
Post a Comment