भारत के दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री रूस की यात्रा पर ताशकंद गए थे, और "ताशकंद" समझौते के बाद उनकी पार्थिव देह देश में वापस आई. क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ, कोई नहीं जानता. साथ में जाने वाला प्रतिनिधि-मंडल और स्वास्थ्य-दल भी नहीं. "गोपनीयता" ने सब ढक लिया.पारदर्शिता प्रधान मंत्रियों के साथ जाने वाले "प्रेस"को भी चकमा दे गई.
ऑपरेशन ब्लू-स्टार के समय स्वर्ण मंदिर परिसर में सेना के दाखिल होते समय "गोपनीयता" कुछ न ढक पाई. "पारदर्शिता" ने सब उजागर कर दिया. देश को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. कांग्रेस को और भी बड़ी. राजीव-संजय गाँधी को उस से भी बड़ी. सिख समुदाय को बड़ी से बड़ी, और इंसानियत को सबसे बड़ी.
मुझे याद नहीं आ रहा, ये ताशकंद और अमृतसर के साथ राधेश्याम त्रिपाठी का नाम कहाँ से आ गया? यह शायद कोई 'टाइपो-ग्राफिकल'मिस्टेक हो सकती है. इस नाम का आदमी न तो ताशकंद गया था और न ही अमृतसर. हाँ, याद आया, इस नाम का मेरा एक मित्र था. वह कहा करता था कि चौरासी लाख योनियों के बाद मिला मानव-जन्म तबादलों में जाया हो रहा है,सरकार अलग-अलग शहरों के अन्न-जल पर मेरा नाम लिखवा देती है.वह यह भी कहता था कि "गोपनीयता" किसी काम की चीज़ नहीं है, जब भी ट्रांसफर कैंसिल करवाने के लिए किसी अफसर के हाथ-पैर जोड़ने जाता हूँ, सब को पता चल जाता है, "पारदर्शिता" भी किसी काम की चीज़ नहीं है, मेरे ट्रांसफर-ऑर्डर कब निकलते हैं, पता ही नहीं चलता. अब वह गोपनीयता और पारदर्शिता की दौड़ से बहुत दूर जा चुका है.अगली चौरासी-लाख योनियों तक अब कोई उसे तंग नहीं कर सकता.
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