कुछ दिनों पहले तक राजस्थान में टीवी पर बहुत सारे विज्ञापन रोज़ दिन में कई बार आ रहे थे। इन विज्ञापनों का सुर कहता था कि पानी की एक-एक बूँद कीमती है और इसे हर तरह बचाया जाना चाहिए।
सुबह ब्रश करने के लिए वाश-बेसिन के नल की जगह मग में पानी लेने की बात की जा रही थी। कार को धोने की जगह गीले कपड़े से पोंछने की सलाह थी। मटके में रात के बचे पानी से सुबह आटा गूंधने और पौधे सींचने की गुज़ारिश थी।
ये सब विज्ञापन आसमान ने भी देखे और बादलों ने भी। शायद बादलों को ये नागवार गुज़रा कि उनके होते हुए इंसान पानी को भी ऐसा मोहताज हो जाए। एक रात वे जम कर क्या बरसे कि सुबह शहर-वासियों ने सड़कों के किनारे पानी में उलटी हुई कारें और ट्रक देखे। खाली पड़े बांधों और तालाबों पर पानी की चादरें चलती देखीं। घर के भीतर सुबह की चाय देने मम्मी को तैर कर आते देखा। चौड़ी-चौड़ी सड़कों को पानी के चाक़ू से दो-फाड़ होते देखा और बच्चों ने अपने-अपने स्कूलों के गेट पर ताले लटके देखे।
कुछ तो है विज्ञापनों में, हमारे सितारे इनके करोड़ों रूपये ऐसे ही नहीं लेते।
वैसे चाहें तो हमारी सभी पार्टियों के नेता-गण भी अपनी-अपनी पीठ ठोक सकते हैं, क्योंकि चंद दिनों पहले वे भी कैमरों के सामने वृष्टि-यज्ञ कर-कर के जनता, यानी अपने वोटरों को रिझा रहे थे। हाँ, सरकार की अलबत्ता चांदी ही चांदी रही, क्योंकि उसे तो राहत बांटनी थी, चाहे सूखा राहत हो या फिर बाढ़ राहत। और यह तो हमारे शास्त्रों में लिखा है कि "बांटने" में सुख है !
सुबह ब्रश करने के लिए वाश-बेसिन के नल की जगह मग में पानी लेने की बात की जा रही थी। कार को धोने की जगह गीले कपड़े से पोंछने की सलाह थी। मटके में रात के बचे पानी से सुबह आटा गूंधने और पौधे सींचने की गुज़ारिश थी।
ये सब विज्ञापन आसमान ने भी देखे और बादलों ने भी। शायद बादलों को ये नागवार गुज़रा कि उनके होते हुए इंसान पानी को भी ऐसा मोहताज हो जाए। एक रात वे जम कर क्या बरसे कि सुबह शहर-वासियों ने सड़कों के किनारे पानी में उलटी हुई कारें और ट्रक देखे। खाली पड़े बांधों और तालाबों पर पानी की चादरें चलती देखीं। घर के भीतर सुबह की चाय देने मम्मी को तैर कर आते देखा। चौड़ी-चौड़ी सड़कों को पानी के चाक़ू से दो-फाड़ होते देखा और बच्चों ने अपने-अपने स्कूलों के गेट पर ताले लटके देखे।
कुछ तो है विज्ञापनों में, हमारे सितारे इनके करोड़ों रूपये ऐसे ही नहीं लेते।
वैसे चाहें तो हमारी सभी पार्टियों के नेता-गण भी अपनी-अपनी पीठ ठोक सकते हैं, क्योंकि चंद दिनों पहले वे भी कैमरों के सामने वृष्टि-यज्ञ कर-कर के जनता, यानी अपने वोटरों को रिझा रहे थे। हाँ, सरकार की अलबत्ता चांदी ही चांदी रही, क्योंकि उसे तो राहत बांटनी थी, चाहे सूखा राहत हो या फिर बाढ़ राहत। और यह तो हमारे शास्त्रों में लिखा है कि "बांटने" में सुख है !
gajab ka vyang !
ReplyDeletebaantne mein hi sukh hai...
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dhanywad!
ReplyDeletenice presentation....
ReplyDeleteAabhar!
Mere blog pr padhare.
sure!
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteबधाई
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।