Wednesday, August 22, 2012

विज्ञापनों का असर

     कुछ दिनों पहले तक राजस्थान में टीवी पर बहुत सारे विज्ञापन रोज़ दिन में कई बार आ रहे थे। इन विज्ञापनों का सुर कहता था कि  पानी की एक-एक बूँद कीमती है और इसे हर तरह बचाया जाना चाहिए।
     सुबह ब्रश करने के लिए वाश-बेसिन के नल की जगह मग में पानी लेने की बात की जा रही थी। कार को धोने की जगह गीले कपड़े  से पोंछने की सलाह थी। मटके में रात के बचे पानी से सुबह आटा गूंधने और पौधे सींचने की गुज़ारिश थी।
     ये सब विज्ञापन आसमान ने भी देखे और बादलों ने भी। शायद बादलों को ये नागवार गुज़रा कि  उनके होते हुए इंसान पानी को भी ऐसा मोहताज हो जाए। एक रात वे जम कर क्या बरसे कि  सुबह शहर-वासियों ने सड़कों के किनारे पानी में उलटी हुई कारें और ट्रक देखे। खाली पड़े बांधों और तालाबों  पर पानी की चादरें चलती देखीं। घर के भीतर सुबह की चाय देने मम्मी को तैर कर आते देखा। चौड़ी-चौड़ी सड़कों को पानी के चाक़ू से दो-फाड़ होते देखा और बच्चों ने अपने-अपने स्कूलों के गेट पर ताले लटके देखे।
      कुछ तो है विज्ञापनों में, हमारे सितारे इनके करोड़ों रूपये ऐसे ही नहीं लेते।
      वैसे चाहें तो हमारी सभी पार्टियों के नेता-गण भी अपनी-अपनी पीठ ठोक  सकते हैं, क्योंकि चंद दिनों पहले वे भी कैमरों के सामने वृष्टि-यज्ञ कर-कर के जनता, यानी  अपने वोटरों को रिझा रहे थे। हाँ, सरकार की  अलबत्ता चांदी ही चांदी रही, क्योंकि उसे तो राहत बांटनी थी, चाहे सूखा राहत हो या फिर बाढ़ राहत। और यह तो हमारे शास्त्रों में लिखा है कि  "बांटने" में सुख है !    

5 comments:

  1. gajab ka vyang !

    baantne mein hi sukh hai...

    .

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  2. nice presentation....
    Aabhar!
    Mere blog pr padhare.

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  3. बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
    बधाई

    इंडिया दर्पण
    पर भी पधारेँ।

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हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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