जब हमारा संविधान बन रहा था, तब एक सर्वोच्च संवैधानिक पद की कल्पना की गई। इसे 'राष्ट्रपति' कहा गया। कल्पना यह थी कि सरकार कभी भी शत-प्रतिशत बहुमत लेकर नहीं बनेगी, इसलिए जो लोग सरकार के साथ न होकर विपक्ष में होंगे, उनके उठाये मुद्दों पर भी तटस्थ दृष्टिकोण रखने वाला सर्वमान्य, सक्षम, विद्वान व्यक्ति इस गरिमा-पूर्ण पद को सुशोभित करे। हो सकता है कि इस पद पर स्थापित व्यक्ति अपनी सीमाओं के चलते सर्वस्वीकार्य न हो सके। ऐसे में आसन की निष्पक्ष-पूर्णता के लिए एक उपराष्ट्रपति की कल्पना भी की गई। यह सोचा गया कि यदि राष्ट्रपति सर्वमान्य न आ सके तो संतुलन के लिए उपराष्ट्रपति अलग विचारधारा को भी प्रश्रय दे सकेगा। इस तरह यह दोनों सर्वोपरि पद सरकार को एक अनुशासित दिशा-निर्देश दे सकेंगे।
शायद यह कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि पलंग पर विश्राम करती सरकार अपनी पीठ के नीचे से एक गद्दी निकाल कर सिरहाने लगा लेगी।
मर जाने के बाद दुनिया में वापस लौटने का ऑप्शन तो है नहीं, तो अब हमारे संविधान निर्माता यह कैसे देखें कि वे क्या चाहते थे, और क्या हो गया।
शायद यह कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि पलंग पर विश्राम करती सरकार अपनी पीठ के नीचे से एक गद्दी निकाल कर सिरहाने लगा लेगी।
मर जाने के बाद दुनिया में वापस लौटने का ऑप्शन तो है नहीं, तो अब हमारे संविधान निर्माता यह कैसे देखें कि वे क्या चाहते थे, और क्या हो गया।
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