भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हिंदी में काम करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए संभव नहीं है, क्योंकि माननीय न्यायाधीशों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
इस खबर पर कई तरह की प्रतिक्रिया सुनने-पढ़ने को मिली।
कुछ लोगों का कहना है कि अब इस पर कुछ नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह "उसने कहा है"
कुछ लोग मानते हैं कि यदि संविधान-सम्मत राजभाषा में काम करने के लिए न्यायाधीशों को बाध्य नहीं किया जा सकता तो डाक्टरों, लेखाकारों,इंजीनियरों, तकनीकी अफसरों को कैसे बाध्य किया जा सकता है।
यहाँ सवाल केवल यह है कि यदि किसी की अपनी क्षमता सीमित होने के कारण वह हिंदी में काम नहीं कर सकता तो "भाषिक उदारता"का हवाला देकर उसे छूट प्रदान की जा सकती है, किन्तु 'काम न कर सकने वाले' यदि हिंदी को अक्षम मान कर इसमें काम नहीं करने का ऐलान कर रहे हैं तो फिर कोई भी हिंदी में काम क्यों करे? सर्वोच्च न्यायालय तो "सर्वोच्च" है,वह सरकार को भी सलाह दे, कि हिंदी को पढ़ाने-सिखाने और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रश्न पर समय,धन और शक्ति व्यय न की जाये। हिंदी पढ़ने-लिखने वाले कम से कम आरम्भ से ही यह जान तो जाएँ कि वे यदि "अक्षम"भाषा पर धन और परिश्रम व्यय करेंगे तो यह उन्हीं का जोखिम होगा।
भारतीयों को यह जानने का हक़ तो है ही, कि जिस भाषा में वे लड़ लेते हैं, उसमें फैसले नहीं हो सकते। जिसमें वे अपराध करते हैं उस भाषा में दंड नहीं दिया जा सकता। जिस भाषा में वे रो लेते हैं, उसमें उन्हें चुप कराना संभव नहीं!
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कुछ लोगों का कहना है कि अब इस पर कुछ नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह "उसने कहा है"
कुछ लोग मानते हैं कि यदि संविधान-सम्मत राजभाषा में काम करने के लिए न्यायाधीशों को बाध्य नहीं किया जा सकता तो डाक्टरों, लेखाकारों,इंजीनियरों, तकनीकी अफसरों को कैसे बाध्य किया जा सकता है।
यहाँ सवाल केवल यह है कि यदि किसी की अपनी क्षमता सीमित होने के कारण वह हिंदी में काम नहीं कर सकता तो "भाषिक उदारता"का हवाला देकर उसे छूट प्रदान की जा सकती है, किन्तु 'काम न कर सकने वाले' यदि हिंदी को अक्षम मान कर इसमें काम नहीं करने का ऐलान कर रहे हैं तो फिर कोई भी हिंदी में काम क्यों करे? सर्वोच्च न्यायालय तो "सर्वोच्च" है,वह सरकार को भी सलाह दे, कि हिंदी को पढ़ाने-सिखाने और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रश्न पर समय,धन और शक्ति व्यय न की जाये। हिंदी पढ़ने-लिखने वाले कम से कम आरम्भ से ही यह जान तो जाएँ कि वे यदि "अक्षम"भाषा पर धन और परिश्रम व्यय करेंगे तो यह उन्हीं का जोखिम होगा।
भारतीयों को यह जानने का हक़ तो है ही, कि जिस भाषा में वे लड़ लेते हैं, उसमें फैसले नहीं हो सकते। जिसमें वे अपराध करते हैं उस भाषा में दंड नहीं दिया जा सकता। जिस भाषा में वे रो लेते हैं, उसमें उन्हें चुप कराना संभव नहीं!
असल में हिन्दी और संस्कृतानुसार समाज स्थापित हो जाएगा तो, न्यायालयों की अावश्यकता ही क्या रह जाएगी। बार काउंसिल की अंग्रेजी में निर्मित टेढ़ी-मेढ़ी धाराओं उपधाराओं की जरूरत ही इसलिए है कि दुनिया अंग्रेजी मानसिकता की अपसंस्कृति के अनुसार चल रही है।
ReplyDeleteAapka kahna sahi hai, hame auron ke rozgaar ka dhyan bhee rakhna hai.Dhanyawad!
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