मुझे याद है, बचपन में एक बार राष्ट्रपति भवन में जाना हुआ तब वहां डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रहते थे।
हमें बैठा दिया गया, और फिर एक व्यक्ति ने आकर हमारी क्लास ली। हमें औपचारिकताओं के "डूज़ एंड डोंट्स" समझाए गए।
कुछ देर बाद एक विशाल दरवाजे से राष्ट्रपति महोदय आये,तो ऐसा लगा, मानो कुछ लोगों द्वारा उनका कोई चित्र झांकी की तरह धीमी गति से हमारे बीच लाया गया हो। कुछ देर के वार्तालाप के बाद मुलाक़ात का पटाक्षेप हो गया।
मन में एक अनजान सा जो भय समा गया था, वह तिरोहित हुआ, और हम बाहर आये।
लगभग ऐसा ही अनुभव कुछ साल बाद उस समय भी हुआ, जब वराहगिरि वेंकटगिरि राष्ट्रपति थे।
आज यह वाक़या इसलिए याद आ गया, क्योंकि राजभवन में राज्यपाल श्रीमती मार्गरेट अल्वा को सुनते हुए कुछ बातों का अंतर मुखर होकर दिमाग में आया।
डॉ राधाकृष्णन को देखकर हमें लगा था कि जैसे हमारे साथ-साथ राष्ट्रपति भवन की औपचारिकताओं से वे भी असहज हैं और चारों ओर फैले बेशकीमती इंफ्रास्ट्रक्चर के तामझाम से संगत बैठाने की मुहिम का तनाव वे भी झेल रहे हैं। ऐसा लगता था जैसे कोई ज़बरदस्त लोक है, जिसमें रहने के योग्य उन्हें, या उसमें घुसने के योग्य हमें, बनना है। वहां हम क्या करेंगे, क्या खाएंगे-पिएंगे, इसका इल्म न हमें है, और न उन्हें।
राज्यपाल महोदया के साथ ऐसा लगा,जैसे हम उनके घर में हैं। वे हमें जिस तरह बैठाना चाहती हैं, बैठा रही हैं, जो खिलाना चाहती हैं, या हम खाना चाहते हैं,खिला रही हैं, जो ठीक नहीं हो रहा, उस पर टिप्पणी कर रही हैं ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समय भी वहां परोसे जाने वाले भोजन या अल्पाहार पर उनकी छाप दिखाई देती थी।
यह आलेख महिला-विमर्श के अंतर्गत नहीं है, यह बीतते समय का मूल्यांकन भी नहीं है,यह भावातिरेक में की गई बीते बचपन की स्मृति-खोरी भी नहीं है। पर फिर भी एक बात आपसे संकोच सहित बांटना चाहता हूँ।
बचपन में मैं सोचा करता था कि यदि राष्ट्रपति को खुजाल हुई तो वह कैसे खुजायेंगे, उन्हें छींक आ गई तो वे क्या करेंगे, यदि उन्हें खांसी आई तो डेकोरम का क्या होगा?
हमें बैठा दिया गया, और फिर एक व्यक्ति ने आकर हमारी क्लास ली। हमें औपचारिकताओं के "डूज़ एंड डोंट्स" समझाए गए।
कुछ देर बाद एक विशाल दरवाजे से राष्ट्रपति महोदय आये,तो ऐसा लगा, मानो कुछ लोगों द्वारा उनका कोई चित्र झांकी की तरह धीमी गति से हमारे बीच लाया गया हो। कुछ देर के वार्तालाप के बाद मुलाक़ात का पटाक्षेप हो गया।
मन में एक अनजान सा जो भय समा गया था, वह तिरोहित हुआ, और हम बाहर आये।
लगभग ऐसा ही अनुभव कुछ साल बाद उस समय भी हुआ, जब वराहगिरि वेंकटगिरि राष्ट्रपति थे।
आज यह वाक़या इसलिए याद आ गया, क्योंकि राजभवन में राज्यपाल श्रीमती मार्गरेट अल्वा को सुनते हुए कुछ बातों का अंतर मुखर होकर दिमाग में आया।
डॉ राधाकृष्णन को देखकर हमें लगा था कि जैसे हमारे साथ-साथ राष्ट्रपति भवन की औपचारिकताओं से वे भी असहज हैं और चारों ओर फैले बेशकीमती इंफ्रास्ट्रक्चर के तामझाम से संगत बैठाने की मुहिम का तनाव वे भी झेल रहे हैं। ऐसा लगता था जैसे कोई ज़बरदस्त लोक है, जिसमें रहने के योग्य उन्हें, या उसमें घुसने के योग्य हमें, बनना है। वहां हम क्या करेंगे, क्या खाएंगे-पिएंगे, इसका इल्म न हमें है, और न उन्हें।
राज्यपाल महोदया के साथ ऐसा लगा,जैसे हम उनके घर में हैं। वे हमें जिस तरह बैठाना चाहती हैं, बैठा रही हैं, जो खिलाना चाहती हैं, या हम खाना चाहते हैं,खिला रही हैं, जो ठीक नहीं हो रहा, उस पर टिप्पणी कर रही हैं ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समय भी वहां परोसे जाने वाले भोजन या अल्पाहार पर उनकी छाप दिखाई देती थी।
यह आलेख महिला-विमर्श के अंतर्गत नहीं है, यह बीतते समय का मूल्यांकन भी नहीं है,यह भावातिरेक में की गई बीते बचपन की स्मृति-खोरी भी नहीं है। पर फिर भी एक बात आपसे संकोच सहित बांटना चाहता हूँ।
बचपन में मैं सोचा करता था कि यदि राष्ट्रपति को खुजाल हुई तो वह कैसे खुजायेंगे, उन्हें छींक आ गई तो वे क्या करेंगे, यदि उन्हें खांसी आई तो डेकोरम का क्या होगा?
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