Saturday, February 4, 2012

तिथियाँ बदलती हैं, दिन नहीं

एक सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे एक द्रष्टिहीन व्यक्ति बैठा था. पुरानी कहानियों में तो कह दिया जाता था कि वह बैठा तपस्या कर रहा था. पर अब ऐसा कहना निरापद नहीं है, क्या पता वह क्या कर रहा हो?
थोड़ी ही देर में उधर से भागता हुआ कोई आदमी गुज़रा. आदमी ने अंधे व्यक्ति से कहा-श्रीमान, क्या यह सड़क मुझे शहर की ओर पहुंचा देगी? उसने उत्तर दिया-पहुंचा तो देगी परन्तु तुम्हें इस पर चल कर जाना होगा. आहट से ऐसा लगा मानो वह आदमी चला गया.
थोड़ी ही देर में फिर एक आदमी की आहट आई. आदमी बोला- क्योंरे, ये रास्ता शहर को ही जा रहा है  न ?
अंधे व्यक्ति ने कहा- रास्ता तो नहीं जाता पर मुसाफिर पहुँच जाते हैं. आदमी चला गया. 
अभी कुछ ही समय गुज़रा होगा कि एक गाड़ी के रुकने की आवाज़ आई. फिर एक स्वर सुनाई दिया-ओ अंधे, वो सामने शहर ही दिख रहा है न ? 
जी सर, वो शहर ही है...आपकी विज़िट की तैयारी करने आपका आदमी भी अभी-अभी गया है.जनता तो पहले से ही जाने लगी थी. 
कार वाले व्यक्ति ने आँखें तरेरीं-आँखें नहीं हैं, फिर भी पूरी पंचायती कर लेता है.क्यों?
जी सर, मन की आँखें तो हैं.     

1 comment:

शोध

आपको क्या लगता है? शोध शुरू करके उसे लगातार झटपट पूरी कर देने पर नतीजे ज़्यादा प्रामाणिक आते हैं या फिर उसे रुक- रुक कर बरसों तक चलाने पर ही...

Lokpriy ...