ऊपर जो कुछ लिखा है वह केवल शीर्षक है. पूरी इबारत यूँ है- अजित गुप्ताजी ने अपनी कई रेल-यात्राओं के दौरान वृद्धावस्था से गुज़र रहे वरिष्ठ नागरिकों के प्रति सरकारी घोषणाओं के बावजूद रेलवे द्वारा अपेक्षित सुविधाएँ मुहैया न कराये जाने पर जो अवलोकन कर के टिप्पणी की है वह एक लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार की समाज के प्रति बेचैनी ही है. बुढ़ापा वास्तव में कष्टकारी और विवश कर देने वाला ही होता है. रेलवे सुविधानुसार नियमों को तोड़-मरोड़ लेने वाला महकमा है. सरकार परम-वाचाल घोषणाकारी उपक्रम का नाम है. साहित्यकार औरों के कष्ट में नम आँखें कर लेने वाली जमात है.
यह सही है कि सरकार ने यदि कोई सुविधा देने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है तो विभाग को तत्परता से उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए,लेकिन हमें क्या होता जा रहा है? यदि सत्तर अस्सी लोगों की बोगी में आठ-दस ऐसे लोग हैं तो क्या हम आगे बढ़ कर उन्हें इतनी सी तात्कालिक सुविधा नहीं दे सकते?आखिर हम एक समाज हैं, अकेलों-अकेलों की भीड़ नहीं. इतनी सारी यात्राओं में इतने सारे यात्री परेशान होते दिखाई दे गए, अर्थात स्थिति वास्तव में चिंतनीय है.क्षमा करें, अगर हम ऐसे हैं तो सरकार भी हमारे द्वारा हमीं में से चुने हुए लोग हैं. अक्सर यह होता है कि हर बजट में सरकार का ध्यान नई-नई लोक-लुभावन घोषणाएं करने पर रहता है.बाद में इन घोषणाओं पर अनुवर्ती कार्यवाही करने में विभाग अक्सर चूक जाता है. कोई नई बात कह कर दाम बढ़ाये जाते हैं, फिर दाम तो हमेशा के लिए बढ़े हुए रह जाते हैं और सुविधा चंद दिन बाद उड़न-छू हो जाती हैं .पिछले दिनों देश ने यह देखा है कि कैसे रेल की रफ़्तार मुख्य-मंत्री की कुर्सी पकड़ने में काम आती है.
यह सही है कि सरकार ने यदि कोई सुविधा देने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है तो विभाग को तत्परता से उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए,लेकिन हमें क्या होता जा रहा है? यदि सत्तर अस्सी लोगों की बोगी में आठ-दस ऐसे लोग हैं तो क्या हम आगे बढ़ कर उन्हें इतनी सी तात्कालिक सुविधा नहीं दे सकते?आखिर हम एक समाज हैं, अकेलों-अकेलों की भीड़ नहीं. इतनी सारी यात्राओं में इतने सारे यात्री परेशान होते दिखाई दे गए, अर्थात स्थिति वास्तव में चिंतनीय है.क्षमा करें, अगर हम ऐसे हैं तो सरकार भी हमारे द्वारा हमीं में से चुने हुए लोग हैं. अक्सर यह होता है कि हर बजट में सरकार का ध्यान नई-नई लोक-लुभावन घोषणाएं करने पर रहता है.बाद में इन घोषणाओं पर अनुवर्ती कार्यवाही करने में विभाग अक्सर चूक जाता है. कोई नई बात कह कर दाम बढ़ाये जाते हैं, फिर दाम तो हमेशा के लिए बढ़े हुए रह जाते हैं और सुविधा चंद दिन बाद उड़न-छू हो जाती हैं .पिछले दिनों देश ने यह देखा है कि कैसे रेल की रफ़्तार मुख्य-मंत्री की कुर्सी पकड़ने में काम आती है.
आपकी बात सही है, सत्कार्य करने के लिये सरकार का मुँह ताकना ज़रूरी नहीं। यह मानवता हम में भी होनी चाहिये कि ऐसी स्थिति में आगे बढकर सामने आयें। हमारी सोच में परिवर्तन आना चाहिये। साथ ही सरकार की ओर से रेलों, अन्य परिवहन व अस्पतालों तथा कार्यालयों, बैंकों आदि में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि वरिष्ठ नागरिकों को सीढियाँ भी चढनी पड़ें।
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