मैंने सिंहासन को तुरंत उस जेब से निकाल कर दूसरी जेब में डाल लिया. मैंने देखा कि उस खूबसूरत रत्न-जड़ित सिंहासन पर दो-एक जगह चूहे के पंजों से खरोंच के निशान बन गए थे. चूहा जेब का किनारा पकड़ कर बाहर झाँकने लगा और यह देख कर वापस नीचे छिप गया कि सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लिया गया है.
लेकिन रत्न-जड़ित सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लेने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा, क्योंकि विक्रमादित्य की आत्मा अब तक उसी जेब में मंडरा रही थी. चूहा फिर उस से बात करने लगा- " इन जनाब ने कभी अपनी किताब 'रक्कासा सी नाचे दिल्ली' में मशीनों का जम कर मज़ाक उड़ाया था.कंप्यूटर तक को कोसा था. जबकि हकीकत यह है कि यदि अभी-अभी सिक्योरिटी चैक में मशीनें नहीं होतीं तो ये जनाब अपना सूटकेस खोल कर एक-एक चीज़ चैक करा रहे होते- चटनी, अचार और मुरब्बे तक. जबकि मशीनों ने इनके असबाब को बिना सूटकेस खोले चैक कर दिया. इनके कपड़े उतरवाए बिना इनकी जेब का इतिहास-भूगोल इन्हें बता दिया. यहाँ तक कि विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन तक इन्हें बाहर नहीं निकालना पड़ा, उसकी धातुओं का लेखा-जोखा मशीनों ने चैक कर दिया."
मुझे चूहे की हरकतों से कुछ गुदगुदी हो रही थी, मैंने किताब बंद की और न्यूयॉर्क जाने के लिए खड़े विमान की ओर बढ़ गया. विक्रमादित्य की आत्मा भी शायद वापस दूसरी जेब में रखे सिंहासन पर चली गई थी.
न्यूयॉर्क जाने वाला हवाई जहाज और भी बड़ा, भव्य था. उसके पंखों पर ये अद्रश्य दर्प-दीप्ति तारी थी कि वह दुनिया के सबसे बेहतरीन मुल्क में जा रहा है. उसका हर कर्मचारी और मुसाफिर 'अल्टीमेट' का मतलब समझने वाला ही नहीं, बल्कि उसे भोगने और पचा लेने वाला था. जेब में चूहा भी शायद इस अहसास से खुश था और जेब के भीतरी हिस्से को प्यार से चाट रहा था. मुझे राहत मिली.
अभी दोपहर भी पूरी तरह बीती नहीं थी कि रात हो गई. खिड़कियों पर शटर चढ़ा दिए गए. उफनते बादलों और चमकती धूप का साम्राज्य सितारों ने ले लिया. चूहे की आँखें जो अब तक चारों ओर देख कर विस्फारित थीं, अब उनींदी सी हो गईं. कई मुल्कों और कई नस्लों के वाशिंदे वहां देखते-देखते लाल कम्बलों में सिमट गए. सीटों के सामने लगे टीवी स्क्रीन एक-एक करके ऑफ़ होने लगे.
कम्बल की गर्माइश मिलते ही विक्रमादित्य की आत्मा धीरे से निकल कर वापस दूसरी जेब में चूहे के पास आ गई. उनींदे चूहे की धीमी खुसर-पुसर फिर शुरू हो गई. वह आत्मा से कह रहा था- " सितारे नीचे आ गए हैं, बादल बगल में मंडरा रहे हैं, लेकिन इन जनाब के सर पर शीशे का ढक्कन अभी भी लगा है, इनकी खोपड़ी उसके पार जा ही नहीं सकती. ये विवेकानंद के ज्ञान को अंतिम समझते हैं. ये अब तक इस बात पर बिसूरते रहे हैं कि शरतचन्द,हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुंशी प्रेमचन्द को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? इन्होने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि बेकन, कीट्स, वाइल्ड,मॉम या चेखव ने क्या कहा..."
चूहे की बात बीच में ही अधूरी रह गई, क्योंकि एक यात्री ने इशारे से मदिरा मांगी थी और एयर-होस्टेस ने उसकी फरमाइश पूरी करने के चलते उसकी सीट की लाइट जला दी थी.[जारी...]
लेकिन रत्न-जड़ित सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लेने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा, क्योंकि विक्रमादित्य की आत्मा अब तक उसी जेब में मंडरा रही थी. चूहा फिर उस से बात करने लगा- " इन जनाब ने कभी अपनी किताब 'रक्कासा सी नाचे दिल्ली' में मशीनों का जम कर मज़ाक उड़ाया था.कंप्यूटर तक को कोसा था. जबकि हकीकत यह है कि यदि अभी-अभी सिक्योरिटी चैक में मशीनें नहीं होतीं तो ये जनाब अपना सूटकेस खोल कर एक-एक चीज़ चैक करा रहे होते- चटनी, अचार और मुरब्बे तक. जबकि मशीनों ने इनके असबाब को बिना सूटकेस खोले चैक कर दिया. इनके कपड़े उतरवाए बिना इनकी जेब का इतिहास-भूगोल इन्हें बता दिया. यहाँ तक कि विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन तक इन्हें बाहर नहीं निकालना पड़ा, उसकी धातुओं का लेखा-जोखा मशीनों ने चैक कर दिया."
मुझे चूहे की हरकतों से कुछ गुदगुदी हो रही थी, मैंने किताब बंद की और न्यूयॉर्क जाने के लिए खड़े विमान की ओर बढ़ गया. विक्रमादित्य की आत्मा भी शायद वापस दूसरी जेब में रखे सिंहासन पर चली गई थी.
न्यूयॉर्क जाने वाला हवाई जहाज और भी बड़ा, भव्य था. उसके पंखों पर ये अद्रश्य दर्प-दीप्ति तारी थी कि वह दुनिया के सबसे बेहतरीन मुल्क में जा रहा है. उसका हर कर्मचारी और मुसाफिर 'अल्टीमेट' का मतलब समझने वाला ही नहीं, बल्कि उसे भोगने और पचा लेने वाला था. जेब में चूहा भी शायद इस अहसास से खुश था और जेब के भीतरी हिस्से को प्यार से चाट रहा था. मुझे राहत मिली.
अभी दोपहर भी पूरी तरह बीती नहीं थी कि रात हो गई. खिड़कियों पर शटर चढ़ा दिए गए. उफनते बादलों और चमकती धूप का साम्राज्य सितारों ने ले लिया. चूहे की आँखें जो अब तक चारों ओर देख कर विस्फारित थीं, अब उनींदी सी हो गईं. कई मुल्कों और कई नस्लों के वाशिंदे वहां देखते-देखते लाल कम्बलों में सिमट गए. सीटों के सामने लगे टीवी स्क्रीन एक-एक करके ऑफ़ होने लगे.
कम्बल की गर्माइश मिलते ही विक्रमादित्य की आत्मा धीरे से निकल कर वापस दूसरी जेब में चूहे के पास आ गई. उनींदे चूहे की धीमी खुसर-पुसर फिर शुरू हो गई. वह आत्मा से कह रहा था- " सितारे नीचे आ गए हैं, बादल बगल में मंडरा रहे हैं, लेकिन इन जनाब के सर पर शीशे का ढक्कन अभी भी लगा है, इनकी खोपड़ी उसके पार जा ही नहीं सकती. ये विवेकानंद के ज्ञान को अंतिम समझते हैं. ये अब तक इस बात पर बिसूरते रहे हैं कि शरतचन्द,हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुंशी प्रेमचन्द को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? इन्होने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि बेकन, कीट्स, वाइल्ड,मॉम या चेखव ने क्या कहा..."
चूहे की बात बीच में ही अधूरी रह गई, क्योंकि एक यात्री ने इशारे से मदिरा मांगी थी और एयर-होस्टेस ने उसकी फरमाइश पूरी करने के चलते उसकी सीट की लाइट जला दी थी.[जारी...]
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