कल मैं एक विश्वविद्यालय के कुछ कोर्सेज़ देख रहा था, जो २०१२ में १८ साल की उम्र के विद्यार्थियों को पढ़ाए जाने हैं.अर्थात लगभग १९९४ में पैदा हुए बच्चे उन्हें पढ़ेंगे.उनमें कुछ लेख, कुछ निबंध, कुछ नाटक, कुछ कहानियां और उपन्यास थे जिनमें से लगभग ८० प्रतिशत आज से १५० से लेकर १०० वर्ष पहले तक लिखे गए थे. उनके रचना-कारों की तीन-चार पीढ़ियाँ आराम से गुज़र चुकी होंगी.उन सब पर सैंकड़ों शोध हो चुके होंगे. लगभग हर दृष्टिकोण से दर्ज़नों टीकाएँ-पुस्तकें लिखी जा चुकी होंगी. आज उन्हें फिर से एक नई नस्ल के दिमाग में झोंकने के पीछे शिक्षकों का क्या प्रयोजन हो सकता है? शायद यही कि कुछ भी नया करने के लिए हाथ-पैर कौन हिलाए?
आदर्श नमूने के तौर पर कुछ-एक कालजयी रचनाकारों को स्थान देने में कोई हर्ज़ नहीं है. लेकिन सारा का सारा घिसा-पिटा मसाला लेकर बच्चों के लिए कौन से ज्ञान के द्वार खोले जा रहे हैं.
महीने भर पहले संजना कपूर सार्वजनिक तौर पर ये दुखड़ा सुना कर गई हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद मैं पृथ्वी थियेटर का कुशल सञ्चालन नहीं कर पाई और वह अब बंद होने के कगार पर है.ऐसे में हम नई नस्ल को कालिदास के नाटक पढ़ाए चले जाएँ और आशा करें कि वे बच्चे प्रबंधन और इन्फोर्मेशन टेक्नोलौजी के बच्चों की तरह बेहतर कैरियर बनायें तो यह शायद बच्चों के साथ अन्याय होगा. यह ऐसा ही है जैसे किसी को घास खिला कर शेर से लड़ने के लिए तैयार करना. इतना ही नहीं, यह पिछले सौ साल में अर्जित ज्ञान की अनदेखी करना भी है.
पुराने साहित्यकारों से अब कोई खतरा नहीं रहा, इसलिये उन्हें महानता प्रदान की जा सकती है; मगर नये तो प्रतिद्वन्द्वी हैं!
ReplyDeleteham akbar-ranapratap, ram-ravan, krishn-kans, kaurav-padav jaise pratidwandwiyon ko bhi to padha rahe hain, fir naye sahitykaaron se hi kaisa dar?aap kuchh vishv vidyalayon ko patra likh kar aisa sujhav deejiye, to unka dhyan awashya jayega.
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