आजकल कोई तटस्थ या निष्पक्ष नहीं होता. किसी अपवाद की बात हम न करें, क्योंकि अपवाद तो अपवाद ही होते हैं, मुश्किल से मिलते हैं. लोग किसी न किसी तरफ होते हैं. कोई धर्म से संचालित है, कोई जाति से, कोई समाज से, कोई परिवार से. और कुछ नहीं तो पैसे या स्वार्थ से ही संचालित हैं लोग. उधर बोलेंगे जिधर स्वार्थ होगा. सांसदों से कभी भी पूछिए- क्या तुम्हारा भत्ता चौगुना बढ़ना चाहिए, फ़ौरन बोलेंगे- हाँ, और वह भी एक स्वर से, बिना किसी अपवाद के. सरकारी कर्मचारियों से पूछिए- क्या तुम्हें हर साल प्रमोशन और तुम्हारे सारे घर को पेंशन मिले? उनका उत्तर 'हाँ' में ही होगा. ऐसा कहीं कोई मुश्किल से ही मिलेगा जो यह कहे कि वेतन योग्यता और काम के हिसाब से ही मिलना चाहिए.
आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जो बिलकुल निष्पक्ष था. उसके आगे राजा और रंक में कोई भेद नहीं था.वह गोरे और काले में कोई भेद नहीं मानता था. अमीर-गरीब की अवधारणा से भी वह नावाकिफ था. सच पूछा जाये तो वह व्यक्ति भी नहीं था. उसका नाम था समय.
आप सोचेंगे कि समय मुझे आज ही मिला हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
वास्तव में मेरा ध्यान आज ही इस बात पर गया कि समय कितना समदर्शी है. सब पर चौबीस घंटे का दिन लेकर ही गुजरता है. इतना बराबर का बंटवारा आज भला और किसका है? जो लोग महा-आलसी हैं, हर काम को घिसट-घिसट कर करते हैं, उन्हें भी समय दिन में चौबीस घंटे ही देता है और जो फ़टाफ़ट सारा काम झटपट निपटाते हैं, उन्हें भी पूरे चौबीस घंटे दे देता है.समय जैसी निष्पक्षता सब को क्यों नहीं आती?
एकदम सही कहा!
ReplyDeletedhanywad.mujhe yah dekh kar aashchary hota hai ki ek aadmi kahta hai- ghar ka kaam karne ki fursat nahin milti. ek aadmi usi din men desh chala deta hai. 'chala' par " " nahin hai.
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