ऑस्कर वाइल्ड के दैत्य ने अपने बगीचे में बच्चों को खेलने से मना किया तो बाग़ में सदा के लिए बर्फीला पतझड़ डेरा जमा कर बैठ गया. फिर वहां न पंछी आये, न धूप. न संगीत गूंजा और न बच्चों की किलकारियां.
बेचारा दैत्य!
उसने तो केवल अपने बगीचे से बच्चों को निकाला, पर हमारा गुनाह तो उस से भी बड़ा है. हमारे बाग़ में बच्चे हैं, पर फिर भी हम उनकी अनदेखी करके अपने खेल खेलने में लगे हुए हैं. हमें पैसा कमाना है, नाम कमाना है और अपने आने वाले कल के लिए इस शर्त पर धन जोड़ कर रखना है की यदि बच्चे हमारी देखभाल ठीक से करें तो धन उन्हें मिले वरना नहीं.हम रोज़ सुबह बच्चे के बस्ते में अपना सपना रख कर उसे घर से निकाल देते हैं. साथ में ऐसा मंत्र पढ़ते हैं की यदि बच्चा हमारे सपने से इंच-भर भी इधर-उधर हिले तो लंच-बॉक्स में रखी रोटी उसके गले में अटक जाये.जब दैत्य के बाग़ में बहार नहीं लौटी तो हमारे बाग़ में क्यों लौटे?
दैत्य को तो एक दिन ईश्वर ने अवतार लेकर सद्बुद्धि देदी, पर हमारा क्या हो? ईश्वर आये भी तो कौन सा? हमारे मंदिर-मेले [मन-मेले नहीं] में तेतीस करोड़ देवताओं की कतार है.
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