कभी कहा जाता था कि साहित्य के पर्याय हैं- भूख,गरीबी,उपेक्षा,लाचारी और पिछड़ापन.साहित्य का महाकुम्भ जयपुर में चल रहा है.इस आयोजन में शिरकत करने वाले और न करने वाले यह कतई मानने को तैयार नहीं हैं कि साहित्य के ऐसे फ़िज़ूल पर्याय हो सकते हैं. मीडिया बाकायदा रोज़ बता रहा है कि सहभागियों को देश-दुनिया के कौन से लज़ीज़ व्यंजन परोसे जा रहे हैं. आयोजन स्थल डिग्गी हाउस के रंगीन परदे मेहमानों के लिए चाहे पारदर्शक हो पर गरीबी के लिए लोहे की दीवार सद्रश्य हैं. यह सब किसी व्यंग्य या नकारात्मक भाव से नहीं लिखा जा रहा, बल्कि इस संतोष के साथ लिखा जा रहा है, कि आयोजकों ने साहित्य की भुखमरी का राग आलापने की जगह साहित्य को संपन्न गरिमा देने की कोशिश की है जो काबिले तारीफ है. हाँ, यदि लेश मात्र भी उपेक्षा या लाचारी कहीं दिखी तो वह कपिल सिब्बल की अगवानी को लेकर दिखी है. वैसे मंत्री जी की इस किरकिरी को भी एक बड़े वर्ग ने गरिमा पूर्ण ही करार दिया है, क्योंकि पिछले दिनों नेट पर स्वतंत्रता को लेकर जो विचार मंत्री जी ने व्यक्त किये थे उसकी खट्टी डकारें अब तक अवाम को आ रही हैं.
सचमुच आज यदि महाकवि केशव होते तो फेस्टिवल के रजिस्ट्रेशन काउंटर पर "आयोजक -सिब्बल" संवाद कुछ इसी तरह बयां करते-
रे कपि कौन तू? 'नेट' को घातक, हिम्मत कैसे पड़ी, यहाँ आयो
लाइन कैसे तरयो? जैसे दर्शक, कौन बुलायो कोऊ न बुलायो
shabdon ki itni kanjoosi mat keejiye.takneek pahle hi baar-baar sampark tod deti hai. ab kam se kam mujhe yah bharosa to rahta hai ki aapki tippani nahin bhi dikhai dee to bhi aapne padha zaroor hoga.
ReplyDeleteजी, मैं आपको सदा ही पढता रहा हूँ। छोटी टिप्पणी केवल यह देखने के लिये दी थी कि क्या मेरी टिप्पणियाँ अब भी स्पैम में जा रही हैं या गूगल मेरे प्रति अधिक सहनशील हो गया है।
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