Wednesday, January 18, 2012

यह "प्रथा" किसका भला करती है ?

जबसे दुनिया बनी है, इन्सान के साथ जो दुःख जुड़े हैं उनमें सबसे बड़ा दुःख है जीवन की समाप्ति- यानी कि मौत. यह दुःख चाहे जाने वाले को न होता हो, पर बाद में रह जाने वाले परिजनों को ज़रूर होता है. शायद इसीलिए मृत्यु के बाद सभी सम्बन्धियों के तुरंत इकठ्ठा हो जाने का रिवाज़ है. न जाने इस रिवाज़ के मूल में क्या कारण रहा होगा? शायद ऐसे ही कुछ कारण रहे हों- सब परिचित देख लें कि जीवन का अंत क्या है. सब परिचितों को देख कर मृतक के निकट रिश्तेदारों को ढाढस मिले. मौत के बाद शव के निस्तारण में सभी का सहयोग मिले. रिश्तों के पुनरीक्षण का अवसर मिले. जाने वाले की चल-अचल संपत्ति को विरासत मिले. संतान को सामाजिक वरिष्ठता मिले. दुःख और दुखियों को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिले. मृत्यु प्रमाणपत्र को सनद और सामूहिक साक्ष्य मिले.
इसके साथ-साथ इस प्रथा को निरंतर निभाए चले जाने पर कुछ सामूहिक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं. जैसे- आकस्मिक, अनियोजित, हड़बड़ी व रिस्क में की गई यात्रायें.कई निजी, कार्यालयीन व व्यापारिक कार्यों का अकस्मात् ठप्प हो जाना. शोक-संतप्त परिवार पर अतिथियों के रहने-खाने की व्यवस्थाओं का दायित्व आ जाना. ढेरों लोगों का हर काम के लिए अवांछित जमघट हो जाना. धार्मिक विधियों के नाम पर परिजनों का भावनात्मक शोषण.
यदि हम इन प्रभावों पर भी स्वस्थ और संतुलित विचार कर लें तो शायद जीवन के इस "अनिवार्य"अंत को थोडा संतुलित दृष्टिकोण से स्वीकार और सह सकें.  

2 comments:

  1. ... उद्देश्य तो बिरीवमैंट के पीड़ितों को सहारा देने का ही रहा है लेकिन जैसा कि हर क्षेत्र और स्थान में देखा जा रहा है, मौकापरस्त ऐसे समय भी बाज़ नहीं आते। साथ ही बहुत से भले लोग भी इतने नासमझ/अनगढ/अनरिफ़ाइंड होते हैं कि असुविधा का सबब बनते हैं। समाज-नायकों को आगे आकर हमारे जीवन में आने वाले ऐसे पड़ावों के लिये मार्ग दिखाना चाहिये।

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  2. bahut gambheer aalekh.sahi kah rahe hain is pratha se adhiktar peedit parivaar ka tamasha ban jaata hai.aane vaalon ki bhi milijuli prakirya rahti hai.sachche humdard to kum hi hote hain tamaashbeen jyada hote hain.kintu ye sab man ki bhaavnayen hain jinhe koi rok nahi sakta.

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