परसों मैं एक छोटे से गाँव में था, जो उत्तर भारत के एक पिछड़े जिले में है. गज़ब की ठण्ड पड़ रही थी,दोपहर के बारह बजे भी घना कोहरा था. ओस रातभर गिरी थी और उसके बाद हलकी वर्षा भी.
छोटे से गाँव में किसी कार्यक्रम के लिए लम्बा चौड़ा शामियाना और भव्य मंच देख कर मुझे अचम्भा हो रहा था कि हजारों की क्षमता वाले इस पंडाल में गीले रास्तों और कंपकंपाने वाली ठण्ड के मौसम में कौन आकर बैठेगा?बैठने के लिए बिछी दरियां तक कहीं से गीली और कहीं से सीली थीं. मंच से थोड़ी दूर पिछवाड़े में लगे एक छोटे से टेंट में बैठ कर चाय पीते हुए मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि थोड़ी ही देर में झुण्ड-जत्थों और हुजूम की शक्ल में शामियाने में लोग भरने लगे. मुझे क्षमा करें, मुझे लोगों की उत्कंठा और जिजीविषा का सम्मान करते हुए कहना चाहिए कि लोगों का "आगमन" होने लगा. जब गाँव की जनसँख्या से भी ज्यादा लोग आते दिखाई दिए, तो पूछने पर मुझे बताया गया कि आस-पास के गाँव-कस्बों से भी लोग आ रहे हैं. टोपियों,दुशालों में अपने को ढांपते-छिपाते लोग आये चले जा रहे थे.
सुसज्जित मंच पर चढ़े हम चंद लोगों के पास इन लगभग दस-हज़ार लोगों को देने के लिए कुछ नहीं था. हमारी जेब में कुछ सपने थे, जिन्हें हमें केवल इस शर्त पर बाहर निकालना था कि भीड़ की जेबों में इन सपनों की कीमत हो.
कार्यक्रम शुरू हो गया. अपने पैंतीस मिनट के भाषण के दौरान लगातार मुझे लगता रहा कि लोग हकीकतों के लिए फ़कीर हैं, सपनों के लिए तो उनकी अंटी में बहुत माल है.लगातार तालियाँ बजाना, न जाने उन्हें ठण्ड में राहत दे रहा था या फिर वह विचारों का तापमान था.
उस भीड़ के कई चेहरे,कई आँखें और कई साए मेरे साथ चले आये हैं. कहीं मेरी नींद में अब खलल न पड़े. कहते हैं कि सपनों के सौदागरों के लिए बिना सपनों की गाढ़ी नींद बहुत ज़रूरी है.
छोटे से गाँव में किसी कार्यक्रम के लिए लम्बा चौड़ा शामियाना और भव्य मंच देख कर मुझे अचम्भा हो रहा था कि हजारों की क्षमता वाले इस पंडाल में गीले रास्तों और कंपकंपाने वाली ठण्ड के मौसम में कौन आकर बैठेगा?बैठने के लिए बिछी दरियां तक कहीं से गीली और कहीं से सीली थीं. मंच से थोड़ी दूर पिछवाड़े में लगे एक छोटे से टेंट में बैठ कर चाय पीते हुए मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि थोड़ी ही देर में झुण्ड-जत्थों और हुजूम की शक्ल में शामियाने में लोग भरने लगे. मुझे क्षमा करें, मुझे लोगों की उत्कंठा और जिजीविषा का सम्मान करते हुए कहना चाहिए कि लोगों का "आगमन" होने लगा. जब गाँव की जनसँख्या से भी ज्यादा लोग आते दिखाई दिए, तो पूछने पर मुझे बताया गया कि आस-पास के गाँव-कस्बों से भी लोग आ रहे हैं. टोपियों,दुशालों में अपने को ढांपते-छिपाते लोग आये चले जा रहे थे.
सुसज्जित मंच पर चढ़े हम चंद लोगों के पास इन लगभग दस-हज़ार लोगों को देने के लिए कुछ नहीं था. हमारी जेब में कुछ सपने थे, जिन्हें हमें केवल इस शर्त पर बाहर निकालना था कि भीड़ की जेबों में इन सपनों की कीमत हो.
कार्यक्रम शुरू हो गया. अपने पैंतीस मिनट के भाषण के दौरान लगातार मुझे लगता रहा कि लोग हकीकतों के लिए फ़कीर हैं, सपनों के लिए तो उनकी अंटी में बहुत माल है.लगातार तालियाँ बजाना, न जाने उन्हें ठण्ड में राहत दे रहा था या फिर वह विचारों का तापमान था.
उस भीड़ के कई चेहरे,कई आँखें और कई साए मेरे साथ चले आये हैं. कहीं मेरी नींद में अब खलल न पड़े. कहते हैं कि सपनों के सौदागरों के लिए बिना सपनों की गाढ़ी नींद बहुत ज़रूरी है.
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