Wednesday, February 29, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 8 ]

     ये रात कुछ ही घंटों की थी. जल्दी ही सवेरा हो गया. खिड़कियों के शटर्स फिर से खुल गए.कुछ एक दुस्साहसी पक्षी आसमान छूती ऊंचाइयों में दिखने लगे. नीले सागर के बाद हरे-पीले ज़मीनी मंज़र भी कुछ चमकदार और साफ हो गए.
     केबिन के पास के टॉयलेट में लोगों की आवाजाही शुरू हो गई. अब लोगों में आपस में थोड़ी परिचय-भावना दिखने लगी थी. अब तक नितांत अपरिचित लोग एक दूसरे के देश और नस्ल से अनभिज्ञ होते हुए भी छुट-पुट वार्तालाप करने लगे थे. ब्रश करने के लिए खड़े युवक-युवतियों के देश की पहचान उनके हाथ में पकड़े ब्रांडेड सामान की कम्पनियों से ही होती थी. लोगों के स्टेटस और उम्र का अनुमान लगाना खासा कठिन उपक्रम था.
     मुझे यह सोच कर थोड़ी घिन आई कि चूहे ने मेरी जेब में ही विष्ठा कर दी होगी. इस कल्पना में उसके सफ़ेद झक्क रंग और गुलाबी मुंह ने भी कोई रियायत नहीं बख्शी. मेरा मन चाहा कि अपनी इस कल्पना के बाबत जोर से चिल्ला कर बोल दूं, ताकि वहां बैठे सभी नस्लों और रंगों के लोग सुनें. लेकिन मुझे जेब टटोलने के बाद यह देख कर खासा इत्मीनान हुआ कि चूहे ने दिन बदल जाने का कोई फायदा नहीं उठाया था. मेरी जेब उसी तरह साफ थी.
     गलियारे में नाश्ते की ट्रॉली लेकर एयर-होस्टेस की आवाजाही शुरू हो गई थी. कई देशों के लुभावने व्यंजन, कई देशों की आभिजात्य मुस्कानों के साथ परोसे जा रहे थे. एक थाई युवती ने जब मुझे 'परांता' ऑफर किया तो मेरे ज़ेहन में चूहा फिर कौंध गया.
     मैंने सुन्दर बॉक्स में रखे छोटे परांठे पर जब मक्खन लगाना शुरू किया तो मेरे मन में चिकनाई की अपनी ज़रूरत से ज्यादा इस विचार ने काम किया कि मक्खन फेंकने या जूठा छोड़ने की नौबत न आये.अब द्वापर युग नहीं था, और अपने देश में मक्खन की कीमत और उपलब्धता से मैं भली-भांति परिचित था. लेकिन उस विलायती मक्खन की तासीर से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ भी था. जैसे ही मैंने उसे खाया, वह मेरे गले और तालू से चिपक गया. मुझे ज़ोर-ज़ोर से हिचकियाँ आने लगीं.ऐसा लगा कि जैसे मेरे गले में वह कौर अटक गया हो. मैंने जल्दी में उसे निगलने की कोशिश की, और सहजता से उसे पेट में पहुँचाने के ख्याल से जूस के छोटे गिलास से जूस भी गटकना शुरू कर दिया. लेकिन मेरी यह कोशिश और भी मुश्किल भरी साबित हुई क्योंकि जिसे मैंने जूस समझ कर गटका था,वह भी चिकनाई वाला कोई सूप-नुमा पेय ही था. उससे मक्खन का कौर आगे खिसकने में कोई मदद नहीं मिली. मेरी हिचकियाँ और तेज़ हो गईं. तभी मुझसे एक सीट छोड़कर आगे बैठी महिला ने मेरी मदद की और नेपकिन से पकड़ कर मुझे एक दूसरे पेय का गिलास दिया, जिसे पीते ही मेरा गला साफ हो गया. मुझे ज़बरदस्त राहत मिली.
     वह महिला केनडा जा रही थी, यह मुझे बाद में उसे धन्यवाद देने के दौरान उस से हुई बातचीत में पता लगा. उस महिला की मुस्कान सहित सेवा ने मुझे पल भर भी यह नहीं लगने दिया कि मैं कहीं परदेस में परायों के बीच हूँ. इतना ही नहीं, बचे नाश्ते की प्लेट समेटने में भी उस महिला ने मेरी मदद की. अब मैं साफ़ देख पा रहा था कि महिला उम्रदराज़ थी. मेरे व्यवस्थित हो जाने के बाद वह अपना नाश्ता खाने में तल्लीन हो गई.
     चूहा शायद कुछ देर पहले की मेरी स्थिति देख चुका था, इसलिए उदासीन सा जेब के भीतर ही बैठा था. वह इस समय किसी भी तरह मेरा मज़ाक उड़ाने के मूड में भी नहीं दिख रहा था.
     लेकिन मेरे एक मैक्सिकन पत्रिका उठा कर खोलते ही मेरी यह ग़लत-फ़हमी दूर हो गई. [जारी...]         

2 comments:

  1. achcha sansmaran hai.kahani pravaah yukt aur interesting hai.

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  2. aabhari hoon, ki aapko yah pasand aa rahi hai.

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