Thursday, March 1, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 9 ]

     चूहे की आवाज़ फिर आने लगी थी. वह वहां घूम रही विक्रमादित्य की आत्मा से कह रहा था - " देखा आपने, आज इन जनाब के मुंह में अटका निवाला भी तब निकला जब एक केनेडियन महिला ने इनकी मदद की.अब तक तो ये केवल भारतीय मेजबानी, ममता और सहयोग भावना के ही कायल रहे हैं. इन्होंने बहत्तर बार वसुधैवकुटुंबकम  की ठुमरी गाई है लेकिन ग्लोबलाईजेशन को अब तक कभी भाव नहीं दिया. ये जानते ही नहीं, कि इन दोनों की फितरत एक ही है. उलटे ये तो भारतीय सत्तू को दुनिया का सबसे बेहतरीन फास्ट-फ़ूड और लस्सी को दुनिया का सबसे अनूठा कोला बताते रहे हैं. तमाम पेप्सी और कोक इन्हें भारतीय शर्बतों के आगे फीके लगते रहे हैं."
     मुझे थोड़ी सी बातचीत के बाद पता चला कि मेरी मदद करने वाली केनेडियन महिला बारह वर्ष पहले एक मुकद्दमे में गवाह की हैसियत से एक बार भारत भी जा चुकी है. केनेडा में उसके पड़ौस में रह रहा एक सिख परिवार उसे अपने किसी संपत्ति विवाद के मुकद्दमे में सहायता के लिए भारत ले गया था, जहाँ वह जालंधर और पानीपत में कुछ दिन रही थी. वह वहां भारतीयों की मेहमान-नवाज़ी से काफी प्रभावित रही थी. शायद इसी वज़ह से वह अतिरिक्त तत्परता से मेरी मदद करने के लिए तुरंत अपनी सीट छोड़ कर चली आई थी. मैं चाहता था कि चूहा अब जेब से बाहर आकर महिला की ये बात सुने. मगर वह तो शायद जेब में अधलेटा होकर ऊंघ रहा था.
     बगदाद शहर नीचे अभी-अभी गुज़र कर चुका था. शहर के कुछ बाहरी हिस्से अब तक पीछे की ओर दौड़ते दिखाई दे रहे थे. मैंने देखा, बगदाद की धरती गहरे सुनहरे रंग की थी, जिसका तात्पर्य यह था कि वहां हरियाली कम थी.
     मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि चूहा न जाने कहाँ से एक छोटा चश्मा उठा लाया और अब उसे आँखों पर लगा कर  अखबार के कागज़ का टुकड़ा हाथ में लेकर ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था.उसकी आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी- 'वंस अपॉन अ टाइम देयर लिव्ड इन बगदाद अ वेरी रिच ओल्ड मर्चेंट विद हिज़  वाइफ एंड अ सन.द ओनली सन,अबू हसन बाई नेम, वाज़ गुड-लुकिंग, इंटेलिजेंट एंड हेड  अ ग्रेट सेन्स ऑफ़ फ़न...'
     शायद विक्रमादित्य की आत्मा कहीं इधर-उधर ओझल हो गई थी, इसीलिए चूहा अकेले में अख़बार से दिल बहला रहा था. आत्मा के आते ही कमबख्त चिड़िया की सी नींद से जाग कर फिर उस से बतियाने लगा- "ये जनाब अब तक बगदाद को चोरों का घर और भारत को साहूकारों का अड्डा समझते रहे हैं." मैंने उसे चुप करने के लिए अख़बार को मक्खी उड़ाने के बहाने अपने सीने पर ज़ोर से मारा. मैं अच्छी तरह जनता था कि वहां कोई मक्खी नहीं थी.
    कुछ घंटों बाद जब जहाज एम्स्तर्दम के समीप से गुज़र रहा था मौसम में व्यापक तब्दीली होने लगी. लन्दन के जिस मौसम की कल्पना अक्सर होती है, वही पनीली ठण्ड वातावरण में घुलने लगी. विमान में अब दोपहर का खाना परोसा जा रहा था. चारों ओर से चहकने के स्वर गूँज रहे थे. [ जारी...]       

3 comments:

  1. chuhe ke madhyam se kahani ka pravaah aur varnan dono prabhaavshali tatha rochak hain.aage ka intjaar....

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  2. जो भी हो, यह चूहा है बड़ा शरारती!

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  3. mujhe pahle pata hota ki aap-log sath hain to main chuhe se nahin darta. chaliye ab aage dar nahin lagega. dhanywad.

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