राजेश कुमारी जी ने जब कल न्यारी-प्यारी बिटिया को याद किया, तो मुझे लगा कि कहीं किसी महकते बाग़ में कोई गुलाब खिल गया. कुछ देर उस गुलाब की महक और होली के रंगों में सारा नज़ारा अलौकिक लगता रहा लेकिन फिर किसी गुलाब के पौधे पर लगे असंख्य काँटों की तरह एक सवाल मेरी सोच को भी चुभने लगा. एक उदासी ने भीतर घर कर लिया. मैं अपने-आप से पूछने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने एक दिन बिटिया के नाम करके चुपके से बाक़ी तीन सौ चौंसठ दिन बेटे की नज़र कर दिए?
मुझे लगता है कि जब भी बेटे-बिटिया की बात आती है हम अपनी बरसों की सभ्यता-संस्कृति को भूल-बिसरा कर ज़माने से हज़ार बरस पीछे हो जाते हैं. जो लोग आज भी बेटे को इंसान और बिटिया को बोझ की गठरी मानते हैं उनके नसीब पर कहर टूटे. कीड़े-मकोड़ों को ऐसे लोगों के जीते-जी उनके बदन से महाभोज मिले.
मुझे लगता है कि जब भी बेटे-बिटिया की बात आती है हम अपनी बरसों की सभ्यता-संस्कृति को भूल-बिसरा कर ज़माने से हज़ार बरस पीछे हो जाते हैं. जो लोग आज भी बेटे को इंसान और बिटिया को बोझ की गठरी मानते हैं उनके नसीब पर कहर टूटे. कीड़े-मकोड़ों को ऐसे लोगों के जीते-जी उनके बदन से महाभोज मिले.
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