-अपनी जिंदगी जी... खूब बुढ़ापे तक रह.
-ये अपने हाथ में है ? किन्ज़ान ने थोड़ा मुस्करा कर कहा.
-बेटा, बुढ़ापा बहुत अच्छा होता है. जीवन के ढेर सारे अनुभव शरीर के पोर-पोर में रच-बस जाते हैं. ज़ेहन में बहुत सारे ऐसे लोगों का मजमा जुड़ जाता है, जिनसे हम कभी न कभी, कहीं न कहीं मिले होते हैं. चमड़ी की कनात पर हमारी शरारतों के निशान बन जाते हैं.
-क्या कह रही हो माँ, थोड़ी देर चुपचाप सो जाओ.
-बोलने दे रे, जिस तरह आटे और मक्खन को ज्यादा फेंटने से केक मुलायम और स्पंजी बनता है, वैसे ही बुढ़ापे में हड्डियाँ जीवन की बहारों को खूब झेल कर फोकी और खसखसी हो जाती हैं. इनकी सब हेकड़ी चली जाती है.
-माँ, तुम्हे आराम चाहिए...
-बहुत आराम मिलता है बेटा, आँखों में उन मेलों की झाइयाँ होती हैं, जिनमें हम मंडराते रहे. दांतों पर उन तमाम स्वादों के काले-पीले अक्स आ जाते हैं, जो हमने लिए. चेहरे के पेड़ पर खट्टी-मीठी यादों के शहतूत झुर्रियां बन कर चिपके होते हैं. क़दमों में हर रास्ते पर चल चुकने की थकान लड़खड़ाहट बन कर गुंथी होती है...बेटा, तू ये सुख छोड़ना मत, बूढ़ा ज़रूर होना.
-अभी तो तुम भी बूढ़ी नहीं हो माँ, मैं तुमसे काफ़ी छोटा हूँ.
-हाँ, अभी तू बहुत छोटा है. तू सोच, कि तू रहेगा. बोल रहेगा न ?
किन्ज़ान हंसा. पागलों जैसी लगातार हंसी, किन्ज़ान देर तक हँसता ही रहा. रस्बी को इंजेक्शन लगाने आई एक नर्स किन्ज़ान को देख कर एक पल ठिठकी, मानो सोच रही हो, कि किसे लगाना है?
तीसरे दिन रस्बी किन्ज़ान के साथ घर आ गई. घर ने उसके आते ही कई छोटे-मोटे काम अपने आप उसके हाथों में पकड़ाने शुरू कर दिए,जैसे मकड़ी के आते ही दीवार उसे जाला बुनने का काम दे देती है.
किन्ज़ान की बंद नौका एक रंग-बिरंगी बॉल की शक्ल में सुन्दर आकार लेने लगी थी.अगले दिन वह उसे नदी पर एक ट्रायल के लिए ले जाना चाहता था. उसने अपने मित्र अर्नेस्ट को समझा दिया था कि अभी सब लोगों को नहीं ले जाना चाहिए. ज्यादा मित्रों के जाने से काम कम होगा और पिकनिक का माहौल ज्यादा बनेगा.
अर्नेस्ट खुश हो गया. वह जानता था कि नदी पर वही इमली की शेप वाली नारंगी रंग की छोटी मछली मिलेगी, जो अपने शरीर से धुआं छोड़ कर साफ़ पानी को मटमैला बना देती है. इस से गहरा पानी भी उथला दिखाई देता है, और धोखे से छोटे-मोटे कीट-मकौड़े गहरे पानी की तेज़ धारा में आ जाते हैं...[ जारी...]
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