Saturday, March 3, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 11 ]

     चूहे के जाते ही मैं कमरे में अकेला हो गया. मेरे मेज़बान, घर के दूसरे लोग बराबर वाले कमरे में सो रहे थे. चूहा जिस तरह खिड़की से निकल कर पाइप से उतरता हुआ नीचे गया, उस से मैं डर गया था.क्योंकि खिड़की का कांच बिलकुल अच्छी तरह बंद था. रास्ते भर इतनी बातें बनाने वाला वह तिलिस्मी चूहा जाते समय मुझसे अपनी मौलिक आवाज़ में "चूँ" भी बोल कर नहीं गया, इस बात से मैं अपमानित महसूस कर रहा था. न जाने वह चूहा कैसा था और अब कहाँ चला गया था ?
     बड़े-बड़े सफ़ेद फूलों की क्यारी के बीच, चाँद की उम्दा रौशनी में चूहे के बिला जाने के बाद मेरा ध्यान राजा विक्रमादित्य के रत्न-जड़ित सिंहासन पर गया. मैंने अपने अकेलेपन को सहने लायक शक्ति जुटाने की नीयत से विक्रमादित्य की आत्मा को आवाज़ दी. पर कोई जवाब नहीं आया. मैं कुछ और जोर से दोबारा चिल्लाया, पर वहां कोई नहीं था. सन्नाटा उसी तरह कायम रहा.
     मैं फिर से उस बंद कांच की खिड़की के पास चला आया, जिसके पार उम्दा उजास में पूरी प्रखरता से चन्द्रमा चमक रहा था. बड़े सफ़ेद फूलों वाली वह क्यारी किसी जादुई चित्र सी साफ़ दिख रही थी, जिसमें अभी कुछ देर पहले गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा बंद कांच से गुज़र कर उस पार गया था. मैंने एक बार पूरा जोर लगा कर उस दिशा में विक्रमादित्य की आत्मा को फिर से पुकारा, यह सोच कर कि शायद वह चूहे के साथ वहां क्यारी में चली गई हो, पर निराशा हाथ लगी. कहीं से कोई उत्तर नहीं आया, उल्टे मुझे संकोच होने लगा कि यदि मेरे मेज़बान जाग गए तो आधी रात में मुझे इस तरह खिड़की से चिल्लाते देख कर न जाने क्या सोचेंगे?
     अब मुझे अचानक भारत में मिले उस तांत्रिक की याद आई जिसने यहाँ आते वक्त मुझे विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन और गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा दिया था. उस तांत्रिक ने मुझे अपना मोबाइल नंबर और ई-मेल पता भी दिया था. यद्यपि रात के पौने तीन बजे थे पर हड़बड़ी में मैंने उसका नंबर मिलाया. काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन नहीं मिला. मैंने हताश होकर अपना कंप्यूटर खोला और उसी समय उसे मेल लिखा.मैंने उस से पूछा कि उसने मुझे सफ़ेद चूहा और विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन क्यों दिया था. क्या यह कोई जादुई भेंट थी या फिर कोई षड़यंत्र था , जिसमें मुझे भागीदार बनाया गया ? मैंने यह भी लिखा कि आते समय फ्लाइट का समय हो जाने के कारण हड़बड़ी में मैं कुछ पूछ नहीं सका था जिसका मुझे खेद है. मैंने तांत्रिक को यह भी लिख दिया कि रास्ते में चूहे ने किस तरह इंसानी आवाज़ में बातें कीं, और विक्रमादित्य की आत्मा सिंहासन के आसपास किस तरह मंडराती रही. मैं यह भी लिखना नहीं भूला कि अब वे दोनों ही न जाने कहाँ ओझल हो गए हैं, और मैं अचम्भे में हूँ कि यह सब क्या था ?
     मेल लिख कर मैं कंप्यूटर बंद करके सोना चाहता था. मेरा अचरज अब कुछ काबू में था किन्तु गहरी नींद लेने की जेट्लैग के कारण पनपी इच्छा अब थोड़ी मंद पड़ गई थी. मैंने गौर किया कि मेरे सोने के स्थान के पास रखे थर्मस में कॉफ़ी अब भी गर्म थी. मेरी चाय की तलब कॉफ़ी देखते ही जैसे जाग गई. एयरपोर्ट से आते समय रास्ते में मैं एक बार स्टार्बक्स की कॉफ़ी का स्वाद चख चुका था.कॉफ़ी पीते-पीते मेरी नींद पूरी तरह भाग चुकी थी. मेरा मन अब सोने को नहीं हो रहा था. इस नायाब देश में नींद से ज्यादा आकर्षक मुझे जागना लग रहा था. खिड़की में चाँद था, मगर वह चाँद अमेरिका में था. बादल भी कुछ अलग आभा दे रहे थे. 
     मैंने कंप्यूटर फिर से खोल लिया और अपना मेल चैक करने लगा. मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा...[जारी ...]                 

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