Sunday, March 4, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 12 ]

...जब मैंने देखा कि तांत्रिक ने मेरे मेल के जवाब में मुझे एक लंबा ख़त भेजा है.
     तांत्रिक ने लिखा था कि मैं सकुशल पहुँचने पर उसकी बधाई स्वीकार करूँ.उसका कहना था कि "विक्रमादित्य" एक कोडवर्ड था जो मुझे दिया गया है. इंटरनेट पर मुझे कई महीनों तक पढ़ने के बाद पर्यटन क्षेत्र की एक मल्टी-नेशनल कम्पनी  मुझसे कुछ लिखवाने के लिए लंबा करार करना चाहती थी. उसके द्वारा मेरे ब्लॉग और ट्विटर को लगातार ओब्ज़र्व किया गया था. जिस तरह किसी कैसेट या सीडी को खाली किया जाता है, ठीक उसी तरह यात्रा के दौरान मेरा मस्तिष्क-प्रक्षालन किया गया था. अर्थात बाहरी प्रभाव से मेरे विचार बदलने की कोशिश की गई थी. यह एक प्रकार का मानस आक्रमण था. कंपनी ने लम्बे समय तक मुझे प्रेक्षण पर, अर्थात अंडर-ओब्ज़र्वेशन रख कर मेरे मस्तिष्क की क्रियेटिविटी को स्कैन किया था और यह जांच की थी कि मैं कम्पनी द्वारा दिए गए विचारों को अपनी भाषा में किस तरह अपनी रचना में उतारूंगा. चूहे को करेंट से संचालित करने की बात कही गई. चूहा उनके द्वारा मुक्त किये जाते ही अपनी रिसीवर की भूमिका में की गयी शोध के परिणाम की चिप उन्हें सौंप कर एक सामान्य चूहे की  भांति भाग गया.मेरी इस जिज्ञासा का समाधान भी किया गया था कि चूहा बंद कांच की खिड़की से कैसे भागा ? मुझे बताया गया  कि वह एक मेडिकल ऑपरेशन था, जिसमें मेरे मस्तिष्क में सकारात्मकता को इंजेक्ट किया गया था, जिसके प्रभाव से मैं यह सोच सकूं, कि " कुछ भी संभव " है. मुझे दिया गया सिंहासन एक गिफ्ट-शोपीस था, लेकिन उसमें जड़े रत्नों पर उन देशों के नाम थे, जिनमें कम्पनी कार्यरत थी. बताया गया कि उन नामों को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखा जा सकता है.
     तांत्रिक ने मेल में अंत में अपना नाम और परिचय भी दिया था. जिसे पढ़ कर मैं सन्न रह गया क्योंकि जिसे मैं कोई तांत्रिक समझ रहा था वह एक नामी पब्लिशिंग कम्पनी का अधिकारी था और विदेशी था.
     मेरे रोंगटे खड़े हो गए. नींद मुझसे कोसों दूर थी. आसपास कोई ऐसा भी नहीं था जिसे यह वाकया सुना कर मैं यह जान पाता कि यह सारा घटना-क्रम मेरी कोई सफलता थी या दुर्भाग्य.
     मैंने अब एक मित्र की भांति उसे फिर से मेल किया और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा. जवाब में केवल इतना लिखा हुआ आया ...वेट अ मोमेंट...कुछ देर इंतजार करके मैं सो गया.
     न जाने कितनी लम्बी और गहरी नींद रही मेरी. मैं अगले दिन दोपहर को लगभग तीन बजे उठा. मेरे मेज़बान ने मुझा जगा देख कर नमस्कार किया और बताया कि लम्बे सफ़र के बाद ऐसी ही नींद आती है.
     उठते ही मैंने अपना कंप्यूटर खोल कर मेल चैक किया. रात का वही वाक्यांश कई भाषाओँ में आ रहा था. मुझे अपने देश और अपनी भाषा की याद आयी. मैं अब अपनी भाषा को  वहां तलाशने लगा. आखिर एक जगह वह बारीक अक्षरों में लिखी मुझे  दिख ही गई. लिखा था - " थोड़ी देर और ठहर ". [ समाप्त ]
[ यह कहानी मेरी २९ और कहानियों सहित दिशा प्रकाशन, दिल्ली, [भारत] से प्रकाशित  "थोड़ी देर और ठहर " शीर्षक किताब में उपलब्ध है.]     

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