Saturday, February 25, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 4 ]

     शायद चूहा जेब से बाहर झाँक कर ' सौ चूहे खाने के बाद ' कहने आया था, पर झांकते ही उसे अंदाज़ हो गया कि मैं इस समय बैठा नहीं, बल्कि खड़ा हूँ और जेब से बाहर निकलते ही उसके नीचे गिर जाने का ख़तरा है. इसी से वह सहम कर वापस भीतर बिला गया. न जाने चूहे की आवाज़ से महिला ने क्या समझा हो, ज़रूरी नहीं कि एक देश के मुहावरे दूसरे देश में भी पहचाने जाते हों. दो-चार इधर-उधर की बातों के बाद मैं वापस अपनी सीट पर लौट आया. दो अलग-अलग देशों के लोगों के बीच की इधर-उधर की बातें भी या तो मौसम की हो सकती हैं या फिर यात्रा की.
     केबिन से शायद किसी बड़े शहर के नीचे होने की सूचना आ रही थी. इसी से मैंने अपनी सीट पर पहुँच कर फिर से खिड़की की ओर मुंह घुमा लिया. यह नदी किनारे लम्बाई में बसा कोई खूबसूरत शहर था. लगभग हर इमारत के सामने ढेर सारी कारों की कतारें आकर्षक थीं.देख कर लगता था कि चलते हुए लोग और दौड़ती हुई जिंदगी इस युग की पहचान हो. भविष्य की ओर दौड़ता समय इतिहास के पाँव छोड़ रहा था. अब विमानतल पर लैंड करने के लिए लोग कसमसाने लगे थे. हज यात्रियों का उत्साह थकान से परे और भी बढ़ गया था. बाकी लोग भी अपनी इधर-उधर की उड़ानों के लिए तत्पर हो रहे थे.तभी विमान की लैंडिंग की घोषणा भी हो गई. एक बार फिर से सीट-बेल्ट्स बंधने लगीं, और मोबाइल बंद किये जाने लगे. मुस्कानें कुछ और कटीली होने लगीं. चूहा शायद थक कर आराम कर रहा था.
     जहाज एयरपोर्ट पर उतरा तो गहमा-गहमी कुछ ज्यादा ही थी. सुबह का समय था और लन्दन, न्यूयॉर्क  या अन्य दिशाओं में जाने वाले लोगों को अपनी-अपनी दिशा पहचान कर यहाँ से अलग-अलग दलों में बँटना था.
     बाहर आकर मैंने कुछ डॉलर रियाल में बदलवा लिए, ताकि छोटी से छोटी जगह पर जाकर भी बैठ सकूं. एक बेहद नफ़ासत-भरे सुन्दर से रेस्तरां में बैठ कर जब मैंने शीशों के पार बाहर की दुनिया में निगाह डाली तो अजीबो-ग़रीब ख्याल मन में आने लगे.
     लेकिन मुझे ख्यालों से ज्यादा जेब में रखे चूहे को सम्हालना था जो अब टुकुर-टुकुर आवाज़ों के साथ जेब में ऊब चुका होने का संकेत दे रहा था.मगर यहाँ उसे बाहर निकालना सुरक्षित नहीं था. दूसरी जेब में रखे सिंहासन को निकाल कर मैंने मेज़ पर रख लिया था. कॉफ़ी के प्याले के साथ वह रत्न-जड़ित सिंहासन काफी आकर्षक दिख रहा था. शायद विक्रमादित्य की आत्मा उसके इर्द-गिर्द मंडरा रही थी.
     मेरी कॉफ़ी गिरते-गिरते बची, क्योंकि चूहे ने तेज़ी से जेब से लेकर मेज़ तक छलांग लगाई थी और वह सिंहासन के लगभग ऊपर ही कूद गया. कुछ बूँदें छलकीं जिन्हें मैंने कागज़-नेपकिन से साफ़ किया. [जारी...]           

2 comments:

  1. अच्छी चल रही है कहानी। मेरी तरह अन्य लोग भी चुपचाप पढते हुए अंतिम कड़ी पर टिप्पणी करने का इंतज़ार कर रहे हैं शायद। जारी रखिये ...

    ReplyDelete

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...