दरअसल उस पठान सूट के पायजामे का कमर-बंद इतना बड़ा और कलात्मक था कि अपने पेट पर हर समय इतनी भव्यता टांगे रखने का ख्याल ही मुझे अटपटा सा लगा. मुझे उसका मनोविज्ञानं ही समझ में नहीं आया. जो चीज़ हरसमय भीतरी कपड़ों में छिपाए रखनी हो,उसे इतना आकर्षक बनाने का क्या मकसद? लेकिन मैं किसी तर्क-वितर्क में नहीं पड़ना चाहता था.शिवमंदिरों में बंदनवार मैंने भारत में बहुत देखे थे.
चूहा हंस रहा था. अब मैं उसकी हंसी का भी अभ्यस्त हो चला था, इसलिए मुझे वह ज्यादा वीभत्स नहीं लगा. पर वह अब विक्रमादित्य की आत्मा को बैग में समय रखने का फलसफा समझा रहा था. भारत से जब भी कोई जहाज अमेरिका जाता था, तो वहां तक जाते-जाते उसे लगभग आधा ग्लोब पार करना पड़ता था. इस बीच बाईस- चौबीस घंटे का समय भी लग जाता था. और पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण इस दौरान लगभग एक दिन के समय का अंतर भी पड़ जाता था.नतीजा यह होता था कि आप भारत से जिस तारिख को यात्रा पर निकलें, एक दिन और एक पूरी रात बिताने के बाद भी वहां पहुँचने पर वही तारीख़ रहती थी.तो उसी तारीख़ को पहुँच जाने के बावजूद आपको सुबह के सब काम, यथा- शौच, दांतों की सफाई, मुंह धोना आदि निपटाने ही पड़ते थे. इन्हीं कामों के लिए ज़रूरी चीज़ें बैग में रखने की वजह से, बैग में थोड़ी जगह रखने की अपेक्षा होती थी.कुछ लोग तो इस बीच अपने अंतर-वस्त्र भी बदल डालने की मानसिकता में हो जाते हैं, पर इतनी दूर जाकर बदल तो चोला जाता था.
मैंने बैग की जेब से मूंगफली वाली चिक्की का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर जेब में डाला. टुकड़े ने रत्न-जड़ित सिंहासन से टकरा कर 'खट' की आवाज़ की.चूहा अब चुप था.
वहां से निकल कर मैं एक किताबों की दुकान में आ गया था. 'बेस्ट सेलर' के शेल्फ पर जयपुर की महारानी गायत्री देवी की आत्मकथा को देख कर मैं वहां रुक गया. ऑटोबायोग्राफी के आकर्षक चित्रों में भारत का गुलाबी शहर जयपुर काफी जीवंत दिखता था. विक्रम सेठ, अरुंधती रॉय, सलमान रुश्दी से होता हुआ मैं तसलीमा नसरीन तक पहुंचा ही था कि जेब में घुड़-घुड़ होने लगी. चूहा शायद चिक्की खा चुका था.वह फिर विक्रमादित्य की आत्मा से बतियाने लगा था. कह रहा था- " ये जनाब बाणभट्ट की आत्मकथा, सूरज का सातवां घोड़ा,मधुशाला और आधागाँव को ही साहित्य समझते रहे हैं. इन्होंने राजा निरबंसिया और मित्रो मरजानी से आगे दुनिया ही नहीं देखी.ये तो गोदान और गबन पढ़ कर ही गंगा नहाये."
बुक स्टोर से निकलते समय मेरा ध्यान इस बात पर गया कि ' क्रॉसवर्ल्ड ' ने विमानतल पर भी अच्छा खासा स्टॉक रखा था. लेकिन ट्रांजिट की हड़बड़ी में ग्रीक साहित्य के शेल्फ में झांकना मुझे जोखिम भरा लगा. फिर मुझे निसर्ग से भी आमंत्रण मिल रहा था. इसलिए मैं न्यूयॉर्क वाले चैक-इन काउंटर की ओर ही बढ़ गया.
प्रसाधन से सामान्य होकर मैं बाहर आया तो सिक्योरिटी-चैक शुरू होने में लगभग बीस मिनट शेष थे. मैंने अभी-अभी खरीदा नाटक 'ट्रॉय की औरतें' उलटने-पलटने की गरज से बाहर निकाला और लाउंज में एक कुर्सी पर बैठ गया. मैंने एक हाथ से अपने सीने पर जेब को लगभग दबा कर मुश्किल से चूहे को चुप किया. वह न जाने कहाँ से ऐसा बेहूदा गाना सीख कर आया था और अब चिल्ला-चिल्ला कर गा रहा था- रक्कासा सी नाचे दिल्ली...रक्कासा सी नाचे दिल्ली...[ जारी...]
चूहा हंस रहा था. अब मैं उसकी हंसी का भी अभ्यस्त हो चला था, इसलिए मुझे वह ज्यादा वीभत्स नहीं लगा. पर वह अब विक्रमादित्य की आत्मा को बैग में समय रखने का फलसफा समझा रहा था. भारत से जब भी कोई जहाज अमेरिका जाता था, तो वहां तक जाते-जाते उसे लगभग आधा ग्लोब पार करना पड़ता था. इस बीच बाईस- चौबीस घंटे का समय भी लग जाता था. और पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण इस दौरान लगभग एक दिन के समय का अंतर भी पड़ जाता था.नतीजा यह होता था कि आप भारत से जिस तारिख को यात्रा पर निकलें, एक दिन और एक पूरी रात बिताने के बाद भी वहां पहुँचने पर वही तारीख़ रहती थी.तो उसी तारीख़ को पहुँच जाने के बावजूद आपको सुबह के सब काम, यथा- शौच, दांतों की सफाई, मुंह धोना आदि निपटाने ही पड़ते थे. इन्हीं कामों के लिए ज़रूरी चीज़ें बैग में रखने की वजह से, बैग में थोड़ी जगह रखने की अपेक्षा होती थी.कुछ लोग तो इस बीच अपने अंतर-वस्त्र भी बदल डालने की मानसिकता में हो जाते हैं, पर इतनी दूर जाकर बदल तो चोला जाता था.
मैंने बैग की जेब से मूंगफली वाली चिक्की का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर जेब में डाला. टुकड़े ने रत्न-जड़ित सिंहासन से टकरा कर 'खट' की आवाज़ की.चूहा अब चुप था.
वहां से निकल कर मैं एक किताबों की दुकान में आ गया था. 'बेस्ट सेलर' के शेल्फ पर जयपुर की महारानी गायत्री देवी की आत्मकथा को देख कर मैं वहां रुक गया. ऑटोबायोग्राफी के आकर्षक चित्रों में भारत का गुलाबी शहर जयपुर काफी जीवंत दिखता था. विक्रम सेठ, अरुंधती रॉय, सलमान रुश्दी से होता हुआ मैं तसलीमा नसरीन तक पहुंचा ही था कि जेब में घुड़-घुड़ होने लगी. चूहा शायद चिक्की खा चुका था.वह फिर विक्रमादित्य की आत्मा से बतियाने लगा था. कह रहा था- " ये जनाब बाणभट्ट की आत्मकथा, सूरज का सातवां घोड़ा,मधुशाला और आधागाँव को ही साहित्य समझते रहे हैं. इन्होंने राजा निरबंसिया और मित्रो मरजानी से आगे दुनिया ही नहीं देखी.ये तो गोदान और गबन पढ़ कर ही गंगा नहाये."
बुक स्टोर से निकलते समय मेरा ध्यान इस बात पर गया कि ' क्रॉसवर्ल्ड ' ने विमानतल पर भी अच्छा खासा स्टॉक रखा था. लेकिन ट्रांजिट की हड़बड़ी में ग्रीक साहित्य के शेल्फ में झांकना मुझे जोखिम भरा लगा. फिर मुझे निसर्ग से भी आमंत्रण मिल रहा था. इसलिए मैं न्यूयॉर्क वाले चैक-इन काउंटर की ओर ही बढ़ गया.
प्रसाधन से सामान्य होकर मैं बाहर आया तो सिक्योरिटी-चैक शुरू होने में लगभग बीस मिनट शेष थे. मैंने अभी-अभी खरीदा नाटक 'ट्रॉय की औरतें' उलटने-पलटने की गरज से बाहर निकाला और लाउंज में एक कुर्सी पर बैठ गया. मैंने एक हाथ से अपने सीने पर जेब को लगभग दबा कर मुश्किल से चूहे को चुप किया. वह न जाने कहाँ से ऐसा बेहूदा गाना सीख कर आया था और अब चिल्ला-चिल्ला कर गा रहा था- रक्कासा सी नाचे दिल्ली...रक्कासा सी नाचे दिल्ली...[ जारी...]
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