दो मित्र थे। युवा,स्वस्थ,संपन्न।
दोनों ने एक साथ कहीं घूमने जाने का कार्यक्रम बनाया। सुबह दस बजे की गाड़ी थी, ठीक समय पर एक-एक  बैग में कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान रख कर दोनों स्टेशन पहुँच गए।
एक कुली ने स्टेशन पर उनसे सामान उठाने की पेशकश की।सामान कुछ ज़्यादा तो था नहीं, फिर भी न जाने क्या सोच कर एक मित्र ने बैग कुली को सौंप दिया, जबकि दूसरे ने अपना बैग अपने कंधे पर टांग लिया।  
आमने-सामने की सीटों पर दोनों व्यवस्थित हुए ही थे कि गाड़ी चल पड़ी।  
अब उन दोनों में इस बात को लेकर बहस छिड़ गयी कि दोनों में से किसका निर्णय ज़्यादा सही था।  
एक बोला-"इतना सा श्रम तो हमें करना ही चाहिए, आखिर बैग में वज़न ही कितना था?"
दूसरा बोला-"यदि एक मज़दूर की थोड़ी मदद करने के लिहाज़ से हमने पच्चीस-तीस रूपये का काम उसे दे दिया, तो इसमें गलत क्या है?"
-"तो क्या हम दूसरे को संपन्न बनाने के लिए अपने को आलसी बना लें?"
-"लेकिन यदि सब यही सोच कर अपने सब काम अपने आप करते रहे तो कितने ही लोगों की आजीविका छिन जाएगी।"
-"सबको काम देने का ज़िम्मा हमारा नहीं, सरकार का है।"
-"सरकार कैसे करेगी, हमारे माध्यम से ही न?"
-"हम सरकार के मोहरे हैं क्या?"
-"इसमें मोहरे की क्या बात है, अपने अच्छे काम का पुण्य या फ़ल हमें ही तो मिलेगा।"
बहस से दोनों तनाव में आ गए।आख़िर चुप होकर एक ने अन्य यात्री का,पास में पड़ा हुआ अखबार उठा लिया।  
अखबार में खबर थी कि अमिताभ बच्चन की फिल्म 'दो' का नाम बदलकर अब 'वज़ीर'कर दिया गया है।                
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