बवंडर किसी से रास्ते पूछ कर नहीं बढ़ते। आँधियाँ चलने से पहले अपना टूर प्रोग्राम ज़ाहिर नहीं करतीं। ये मदमाते उच्श्रृंखल मंज़र हैं , इन्हें कुदरत ने छूट दी है मनमानी करने की।
ज़्यादा से ज़्यादा इतना किया जा सकता है कि इनके उन्मादी तेवर भाँप कर हम समय रहते अपने नुक्सान को कम से कम करने की जुगत कर लें।
कई भीषण झंझावात एक गली में हुंकार भरते हुए दूसरी गली से निकल जाते हैं। दरिया इनके हौसले पस्त कर देते हैं, हवाएँ इनका रुख पलट देती हैं।
ये कोई राजपुरुष नहीं हैं कि इनके रथ का काफिला सुरक्षा-बेड़े की "पायलेट कार" के पीछे-पीछे ही चले।
जब धरती पर ही हम इनसे पार नहीं पा सकते, तो भला आसमानों पर किसका बस?
कई काली घटाएं ग़रज कर ही चली जाती हैं।उनकी मर्ज़ी,बरसें,न बरसें।
कई बार घनघोर गर्जन करते काले मेघ हलकी सी बूँदाबाँदी करके ही चले जाते हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं। यदि ये बूँद भर छींटे भी किसी को भिगो न पाएं तो ? बाजार में छतरियाँ भी तो मिलती हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं? फिर किसी 'हुद हुद' या 'नीलोफर'का इंतज़ार !
ज़्यादा से ज़्यादा इतना किया जा सकता है कि इनके उन्मादी तेवर भाँप कर हम समय रहते अपने नुक्सान को कम से कम करने की जुगत कर लें।
कई भीषण झंझावात एक गली में हुंकार भरते हुए दूसरी गली से निकल जाते हैं। दरिया इनके हौसले पस्त कर देते हैं, हवाएँ इनका रुख पलट देती हैं।
ये कोई राजपुरुष नहीं हैं कि इनके रथ का काफिला सुरक्षा-बेड़े की "पायलेट कार" के पीछे-पीछे ही चले।
जब धरती पर ही हम इनसे पार नहीं पा सकते, तो भला आसमानों पर किसका बस?
कई काली घटाएं ग़रज कर ही चली जाती हैं।उनकी मर्ज़ी,बरसें,न बरसें।
कई बार घनघोर गर्जन करते काले मेघ हलकी सी बूँदाबाँदी करके ही चले जाते हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं। यदि ये बूँद भर छींटे भी किसी को भिगो न पाएं तो ? बाजार में छतरियाँ भी तो मिलती हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं? फिर किसी 'हुद हुद' या 'नीलोफर'का इंतज़ार !
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