पिछले दिनों जबलपुर जाना हुआ। इस शहर में लगभग बीस साल पहले मैं कुछ समय के लिए रह चुका हूँ।मुझे इस शहर की कुछ बातें, शुरू से बहुत अच्छी लगती रही हैं। नर्मदा के घाट और उनके किनारे की कच्ची हलचल भी। वर्षों पहले वहां जाते ही कुछ समय के लिए मैं एक प्रतिष्ठित परिवार के जिस मकान में रहा, वह मकान भी मेरे लिए एक अनजाने आकर्षण का केंद्र रहा। उस मकान में रह रहे संयुक्त परिवार और उस भवन ने मुझे अक्सर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास "टेढ़े मेढ़े रास्ते"की याद दिलाई। मुझे हमेशा लगता था कि मेरे अवचेतन में पैठा यह आवास भवन मेरी किसी रचना में चुपके से उतरेगा।
इक्कीस साल बाद जब मैं उस जगह गया, तो मैंने अहाते में एक बड़े शानदार कुत्ते के साथ टहलते हुए एक बच्चे को पाया। बच्चे ने मुझे देखते ही अभिवादन कर के कुत्ते को जंजीर से बाँधा और गेट खोला।मुख्य द्वार के पास एक बड़ा सा तोता पिंजरे में था, जिसने कुछ हलचल-भरी आवाज़ें निकालीं। बच्चे ने ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठा कर अपने पिता को बुलाया, जिनके साथ मैंने चाय पी और नाश्ता किया।
इक्कीस साल पहले भी जब मैं उस घर में पहली बार गया था, तो लगभग यही नज़ारा मैंने देखा था। बस केवल इतना सा अंतर था कि 'तब' के पिता की तस्वीर अब माला सहित दीवार पर टंगी थी। तोता उसी पुराने तोते की नस्ल का, मगर नई उम्र का था। कुत्ता उसी रंग-रूप का,पर जवान था।बच्चा नया, और मेरे लिए अनजाना था और पिता में इक्कीस साल पहले के छोटू की हलकी झलक विद्यमान थी।
मेरे पास आइना नहीं था, इसलिए अपने चेहरे की उम्र मेरे सामने नहीं आ पायी, लेकिन गुज़रे "इक्कीस साल" पारदर्शी होकर मेरे सामने खड़े थे।
इक्कीस साल बाद जब मैं उस जगह गया, तो मैंने अहाते में एक बड़े शानदार कुत्ते के साथ टहलते हुए एक बच्चे को पाया। बच्चे ने मुझे देखते ही अभिवादन कर के कुत्ते को जंजीर से बाँधा और गेट खोला।मुख्य द्वार के पास एक बड़ा सा तोता पिंजरे में था, जिसने कुछ हलचल-भरी आवाज़ें निकालीं। बच्चे ने ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठा कर अपने पिता को बुलाया, जिनके साथ मैंने चाय पी और नाश्ता किया।
इक्कीस साल पहले भी जब मैं उस घर में पहली बार गया था, तो लगभग यही नज़ारा मैंने देखा था। बस केवल इतना सा अंतर था कि 'तब' के पिता की तस्वीर अब माला सहित दीवार पर टंगी थी। तोता उसी पुराने तोते की नस्ल का, मगर नई उम्र का था। कुत्ता उसी रंग-रूप का,पर जवान था।बच्चा नया, और मेरे लिए अनजाना था और पिता में इक्कीस साल पहले के छोटू की हलकी झलक विद्यमान थी।
मेरे पास आइना नहीं था, इसलिए अपने चेहरे की उम्र मेरे सामने नहीं आ पायी, लेकिन गुज़रे "इक्कीस साल" पारदर्शी होकर मेरे सामने खड़े थे।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (05.12.2014) को "ज़रा-सी रौशनी" (चर्चा अंक-1818)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteDhanyawad!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपके लिए तो यह किसी टाइम मशीन में उतारने जैसा अनुभव था। हमें तो बच्चे का जिम्मेदार व्यवहार अच्छा लगा।
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