प्रायः जब हम बिना कोई नाम लिए बात शुरू करते हैं तो यह माना जाता है कि हम ईश्वर की बात ही कर रहे हैं। पर आपको बता दूँ कि फ़िलहाल मैं ईश्वर की नहीं, "तकनीक" की बात कर रहा हूँ। प्रौद्यौगिकी की।
जो न दौड़ सके,वह दौड़ ले। जो न चल सके, वह चल ले। जो न देख सके,वह देख ले।जो गा न सके, वो गा ले।जो नाच न सके, वो नाच ले। जिसके पास दिल न हो, वह दिल ले ले, जिसके पास दिमाग न हो, वह दिमाग।
सच में, इस दौर में तो घाटे में वो है, जिसके पास सब हो! अर्थात यदि आप समझते हैं कि आप में कोई कमी नहीं, [वैसे तो ऐसा समझना अपने आप में एक कमी है] तो तकनीक के कमाल आपको असंतुष्ट और बेचैन रखेंगे।
ये बेचैनी और असंतुष्टि अब यदा-कदा दिखाई देने लगे हैं। लोग [सब नहीं, चंद लोग]चाहने लगे हैं कि बीते दिन, बीते मूल्य, बीती बातें कभी वापस भी आएं , जब आप नीम के न झूमने को हवा का न चलना कहें। [अभी तो पंखे या एसी के बंद होने को कहते हैं, वह भी नहीं हो पाता क्योंकि बिजली की आपूर्ति न होने के विकल्प भी मौजूद हैं]
आपको याद होगा कुछ साल पहले जब क्रिकेट मैच हुआ करते थे, तो प्रायः एक दफ्तर में एक-दो ही 'ट्रांजिस्टर' हुआ करते थे, और नतीजा ये होता था कि कुछ लोगों को दूसरों से स्कोर पूछने के लिए विवश होकर उनसे बोलना पड़ जाता था। अब तो भीड़-भरा ट्रेन का डिब्बा हो, या किसी मॉल में लगे सेल मेले का हुजूम, आपको ऊपर देखना ही नहीं पड़ता, क्योंकि हर हाथ में स्मार्ट फोन होता ही है।शायद इसीलिए कभी-कभी लोगों के मन [मस्तिष्क में नहीं] में ख्याल आता है.…
जो न दौड़ सके,वह दौड़ ले। जो न चल सके, वह चल ले। जो न देख सके,वह देख ले।जो गा न सके, वो गा ले।जो नाच न सके, वो नाच ले। जिसके पास दिल न हो, वह दिल ले ले, जिसके पास दिमाग न हो, वह दिमाग।
सच में, इस दौर में तो घाटे में वो है, जिसके पास सब हो! अर्थात यदि आप समझते हैं कि आप में कोई कमी नहीं, [वैसे तो ऐसा समझना अपने आप में एक कमी है] तो तकनीक के कमाल आपको असंतुष्ट और बेचैन रखेंगे।
ये बेचैनी और असंतुष्टि अब यदा-कदा दिखाई देने लगे हैं। लोग [सब नहीं, चंद लोग]चाहने लगे हैं कि बीते दिन, बीते मूल्य, बीती बातें कभी वापस भी आएं , जब आप नीम के न झूमने को हवा का न चलना कहें। [अभी तो पंखे या एसी के बंद होने को कहते हैं, वह भी नहीं हो पाता क्योंकि बिजली की आपूर्ति न होने के विकल्प भी मौजूद हैं]
आपको याद होगा कुछ साल पहले जब क्रिकेट मैच हुआ करते थे, तो प्रायः एक दफ्तर में एक-दो ही 'ट्रांजिस्टर' हुआ करते थे, और नतीजा ये होता था कि कुछ लोगों को दूसरों से स्कोर पूछने के लिए विवश होकर उनसे बोलना पड़ जाता था। अब तो भीड़-भरा ट्रेन का डिब्बा हो, या किसी मॉल में लगे सेल मेले का हुजूम, आपको ऊपर देखना ही नहीं पड़ता, क्योंकि हर हाथ में स्मार्ट फोन होता ही है।शायद इसीलिए कभी-कभी लोगों के मन [मस्तिष्क में नहीं] में ख्याल आता है.…
इन साधनों ने संवाद तो छीन ही लिया है । जीवन बस खुद तक सिमट गया है
ReplyDeleteSahi kaha aapne ! Iseeliye ummeed bhi hai ki fir lautenge din.
ReplyDeleteसही कहा आपने।
ReplyDeleteतकनीक हमें कहाँ से खींचकर कहाँ ले आई ...
ReplyDelete