ये बात बड़ी तकलीफ देने वाली है कि हम वैज्ञानिकों को आसानी से सम्मान देने को तैयार नहीं होते। वे किसी भी सार्वभौमिक समस्या को पहचान कर उसके निदान के लिए शोध-अनुसन्धान में अपना सारा जीवन लगा देते हैं,कोई न कोई हल भी खोज लेते हैं, मगर हम हैं कि अपने "ढाक के तीन पात" वाले रवैये से बिलकुल भी बदलने को तैयार ही नहीं होते।
वैज्ञानिकों ने चाँद पर हमें भेज दिया, वैज्ञानिकों ने दुनिया की दूरियां मिटा डालीं, पर हम मन की दूरियाँ मिटाने को तैयार नहीं। जहाँ एक ओर पूरे ग्लोब को एक साथ बांधे रखने की कोशिशें हो रही हैं, वहीं हम हैं कि टूटना चाहते हैं, बिखरना चाहते हैं, छिटकना चाहते हैं। हमें अलगाव चाहिए,एकांत चाहिए, स्वच्छंदता चाहिए।
सागर पर इंजीनियर लाख पुल बना डालें,हमारा आवागमन सहज कर दें, किन्तु हमारे लिए तो समुद्र अभी भी सीमा है। उसके इस पार अलग दुनिया हो, उस पार अलग दुनिया।
कल "इंजिनीयर्स डे" है। न जाने कैसे मनेगा?
लेकिन ज़मीन के बीच बहता समंदर तो मचल कर कसमसा रहा है, धरती के दो टुकड़ों को अलग करने के लिए। बात इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की है। प्रतीक्षा १८ तारीख की।
वैज्ञानिकों ने चाँद पर हमें भेज दिया, वैज्ञानिकों ने दुनिया की दूरियां मिटा डालीं, पर हम मन की दूरियाँ मिटाने को तैयार नहीं। जहाँ एक ओर पूरे ग्लोब को एक साथ बांधे रखने की कोशिशें हो रही हैं, वहीं हम हैं कि टूटना चाहते हैं, बिखरना चाहते हैं, छिटकना चाहते हैं। हमें अलगाव चाहिए,एकांत चाहिए, स्वच्छंदता चाहिए।
सागर पर इंजीनियर लाख पुल बना डालें,हमारा आवागमन सहज कर दें, किन्तु हमारे लिए तो समुद्र अभी भी सीमा है। उसके इस पार अलग दुनिया हो, उस पार अलग दुनिया।
कल "इंजिनीयर्स डे" है। न जाने कैसे मनेगा?
लेकिन ज़मीन के बीच बहता समंदर तो मचल कर कसमसा रहा है, धरती के दो टुकड़ों को अलग करने के लिए। बात इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की है। प्रतीक्षा १८ तारीख की।
Dhanyawad,
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