कुछ लोग कहते हैं कि साहित्य अब जीवन पर से अपनी पकड़ खो रहा है। अब न उसे कोई गंभीरता से लेता है, और न ही उसे थोड़े बहुत मनोरंजन से ज़्यादा कुछ समझा जाता है।
यदि आपको भी ऐसा ही लगता है, तो कल की "दिल्ली ज़ू" की उस घटना की खबर ध्यान से पढ़िए, जिसमें बताया गया है कि एक बीस वर्षीय युवक बाघ के बाड़े में गिर गया। बाघ ने उसे कुछ पल ठिठक कर देखा, फिर बाद में एक अन्य दर्शक के पत्थर फेंकने पर क्रुद्ध होकर युवक को मार डाला।
लेकिन इस घटना का साहित्य से क्या सरोकार ?
इसी घटना के प्रत्यक्ष-दर्शियों ने [एक ने तो खूबसूरत फोटो तक उतार लिया]बताया है कि युवक पैर फिसल जाने से दुर्घटना-वश जब बाघ के बाड़े में गिर गया, और बाघ उसके निकट चला आया, तो अकस्मात उसे सामने देख कर युवक ने घबरा कर अपने हाथ बाघ के सामने जोड़े।
सोचिये, ये युवक के दिमाग में कैसे आया होगा? कहाँ देखा होगा उसने ये ?
साक्षात मौत ने दस्तक देकर जब भय से उसकी सारी संवेदनाओं को हर लिया, तो उस मरणासन्न मानव ने वही किया, जो कथा-कहानियों ने उसके अवचेतन में भरा होगा। उस समय तर्क या अनुभव काम नहीं कर रहे थे। साहित्य की देखी-भोगी अनुभूतियाँ संभवतः उस समय भी उसके साथ थीं, चाहे वे पंचतंत्र,बाल साहित्य या लोककथाओं से ही उपजी हों।
यदि आपको भी ऐसा ही लगता है, तो कल की "दिल्ली ज़ू" की उस घटना की खबर ध्यान से पढ़िए, जिसमें बताया गया है कि एक बीस वर्षीय युवक बाघ के बाड़े में गिर गया। बाघ ने उसे कुछ पल ठिठक कर देखा, फिर बाद में एक अन्य दर्शक के पत्थर फेंकने पर क्रुद्ध होकर युवक को मार डाला।
लेकिन इस घटना का साहित्य से क्या सरोकार ?
इसी घटना के प्रत्यक्ष-दर्शियों ने [एक ने तो खूबसूरत फोटो तक उतार लिया]बताया है कि युवक पैर फिसल जाने से दुर्घटना-वश जब बाघ के बाड़े में गिर गया, और बाघ उसके निकट चला आया, तो अकस्मात उसे सामने देख कर युवक ने घबरा कर अपने हाथ बाघ के सामने जोड़े।
सोचिये, ये युवक के दिमाग में कैसे आया होगा? कहाँ देखा होगा उसने ये ?
साक्षात मौत ने दस्तक देकर जब भय से उसकी सारी संवेदनाओं को हर लिया, तो उस मरणासन्न मानव ने वही किया, जो कथा-कहानियों ने उसके अवचेतन में भरा होगा। उस समय तर्क या अनुभव काम नहीं कर रहे थे। साहित्य की देखी-भोगी अनुभूतियाँ संभवतः उस समय भी उसके साथ थीं, चाहे वे पंचतंत्र,बाल साहित्य या लोककथाओं से ही उपजी हों।
बिलकुल सही कहा आपने।
ReplyDeleteDhanyawad.
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