लोग कहते हैं कि लोग बदल जाते हैं, दरअसल लोग नहीं, उनका वक़्त बदल जाता है।
जब आपका वक़्त अच्छा होता है तो सिनेमा के पोस्टर पर भी आपका चेहरा बड़ा हो जाता है। यदि वक़्त ठीक न हो तो आपके बोले संवाद भी सम्पादित हो जाते हैं।
आज से ठीक ५० साल पहले एक फिल्म आई थी "वक़्त"
मैंने उसे तब भी कई बार देखा और अब भी, टीवी पर।
वक़्त के जानकारों ने उसे वक़्त के मुताबिक बदल दिया है। उसमें से "वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज " जैसा दर्शन-मंडित गीत अब हटा दिया गया है।
उस फिल्म के मुख्य नायक-नायिका अब दुनिया में नहीं हैं, लिहाज़ा फ़ोन पर गाया गया उनका एक लम्बा और बेहद खूबसूरत गीत "मैंने देखा है कि गाते हुए झरनों के करीब,अपनी बेताबी-ए -जज़्बात कही है तुमने"अब काट दिया गया है।
"चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आखों में सुरूर आ जाता है" गीत में से नायिका के वे 'क्लोज़-अप' हटा दिए गए हैं, जिनके कभी देशभर में कैलेंडर छपे थे, और कई फिल्मों में उन्हें दोहराया गया था।
दूसरी ओर फिल्म की सहनायिका-सहनायक के कुछ दृश्यों में स्टिल दृश्य डाल कर उनका 'वक़्त' कुछ और लम्बा किया गया है। उस फिल्म की वे सहनायिका अब बड़ी हस्ती हैं, सहनायक भी दादासाहेब फाल्के अवार्ड विजेता।
वक़्त की अहमियत की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि अपने समय की सबसे लोकप्रिय उस नायिका-अभिनेत्री की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि टीवी के किसी चैनल ने उसकी कोई फिल्म तो क्या, गीत तक अपने किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया।
छोड़िये, साधना का जाना अब तो वैसे भी गए साल की बात हो गयी।
"हम चले जाते हैं मगर दूर तलक कोई नहीं,
सिर्फ पत्तों के खड़कने की सदा आती है"
जब आपका वक़्त अच्छा होता है तो सिनेमा के पोस्टर पर भी आपका चेहरा बड़ा हो जाता है। यदि वक़्त ठीक न हो तो आपके बोले संवाद भी सम्पादित हो जाते हैं।
आज से ठीक ५० साल पहले एक फिल्म आई थी "वक़्त"
मैंने उसे तब भी कई बार देखा और अब भी, टीवी पर।
वक़्त के जानकारों ने उसे वक़्त के मुताबिक बदल दिया है। उसमें से "वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज " जैसा दर्शन-मंडित गीत अब हटा दिया गया है।
उस फिल्म के मुख्य नायक-नायिका अब दुनिया में नहीं हैं, लिहाज़ा फ़ोन पर गाया गया उनका एक लम्बा और बेहद खूबसूरत गीत "मैंने देखा है कि गाते हुए झरनों के करीब,अपनी बेताबी-ए -जज़्बात कही है तुमने"अब काट दिया गया है।
"चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आखों में सुरूर आ जाता है" गीत में से नायिका के वे 'क्लोज़-अप' हटा दिए गए हैं, जिनके कभी देशभर में कैलेंडर छपे थे, और कई फिल्मों में उन्हें दोहराया गया था।
दूसरी ओर फिल्म की सहनायिका-सहनायक के कुछ दृश्यों में स्टिल दृश्य डाल कर उनका 'वक़्त' कुछ और लम्बा किया गया है। उस फिल्म की वे सहनायिका अब बड़ी हस्ती हैं, सहनायक भी दादासाहेब फाल्के अवार्ड विजेता।
वक़्त की अहमियत की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि अपने समय की सबसे लोकप्रिय उस नायिका-अभिनेत्री की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि टीवी के किसी चैनल ने उसकी कोई फिल्म तो क्या, गीत तक अपने किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया।
छोड़िये, साधना का जाना अब तो वैसे भी गए साल की बात हो गयी।
"हम चले जाते हैं मगर दूर तलक कोई नहीं,
सिर्फ पत्तों के खड़कने की सदा आती है"