कुछ समय पहले तक हमें ये बात हैरत में डालती थी कि ओलिम्पिक खेलों में जहाँ हमारा देश एक-एक पदक के लिए लालायित रहता है, वहीँ चीन जैसे देश स्वर्ण-पदकों का अम्बार लगा देते हैं।जब "लौह-पर्दा" हटा तो पता चला कि चीन में बालक पैदा होते ही, जैसे ही आँखें खोलता है तो वह अपने को खेल-प्रशिक्षकों के क्रूर पंजों में पाता है,जो उसे किसी मछली की भांति स्विमिंग पूलों में डुबकियां लगवाते हैं, ताकि पंद्रह-सोलह साल का होते ही वह तैराकी का विश्व-विजेता बन जाये। और तब हम इस विचार दुविधा में बँट गए कि हमें सोना चाहिए या बचपन?
ऐसे ही अब जापानी बच्चों की संजीदगी का राज़ भी आखिर खुल ही गया। वे बचपन से ही बुद्ध-महावीर की भांति गुरु-गंभीरता से ध्यानमग्न इसलिए दिखाई देते रहे , क्योंकि उन पर बचपन से ही शोर-शराबा करने पर पाबन्दी लगी हुई थी,जिसे अब हटा दिया गया है।
छी छी, ऐसी पाबन्दी तो हमारे यहाँ संसद -विधानसभा में शोर मचाने पर भी नहीं ! जबकि वहां बड़ों के वोट से "बड़े" ही जाते हैं।
ऐसे ही अब जापानी बच्चों की संजीदगी का राज़ भी आखिर खुल ही गया। वे बचपन से ही बुद्ध-महावीर की भांति गुरु-गंभीरता से ध्यानमग्न इसलिए दिखाई देते रहे , क्योंकि उन पर बचपन से ही शोर-शराबा करने पर पाबन्दी लगी हुई थी,जिसे अब हटा दिया गया है।
छी छी, ऐसी पाबन्दी तो हमारे यहाँ संसद -विधानसभा में शोर मचाने पर भी नहीं ! जबकि वहां बड़ों के वोट से "बड़े" ही जाते हैं।
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