Monday, December 3, 2012

क्या मानव अधिकार की बात ऐसी है?

मैं अपने एक मित्र के साथ एक मीडिया हाउस में बैठा था। दो युवक एक तस्वीर के साथ कोई छोटी सी खबर अखबार में देने आये थे। उनसे बात हुई। वे बताने लगे- कुछ दिन पहले उन्होंने अपनी शोध के सिलसिले में एक जेल का दौरा किया। वहां विशेष अनुमति लेकर वे कुछ ऐसे लड़कों से मिले जिन्हें एक घर के भीतर दो-तीन महिलाओं पर लूट के इरादे से हमला करने पर जेल हुई थी। उनमें से एक लड़के की माँ  ने जेल के अधिकारी को यह अर्जी दी थी कि  उसके पुत्र को सर्दी के मौसम में ज़मीन पर बिना कुछ बिछाए सुलाया गया। वे मानव अधिकार के तहत इस घटना की जांच चाहती थी।
जब इन युवकों ने उस महिला से संपर्क करके यह पूछा- क्या वह जानती है, उसके पुत्र ने अन्य लोगों पर जान लेवा हमला किया है, और वह अपने पुत्र की ज़रा सी असुविधा की शिकायत कर रही है? तब माँ  ने जवाब दिया- पुत्र अठारह साल का हो चुका है, वह घर से निकल कर क्या करता है, यह उसके अख्तियार में नहीं है, किन्तु उसे रात के किसी भी पहर, दुनिया के किसी भी कौने में, कोई भी कष्ट होता है, तो उसकी चिंता करना उसका नैसर्गिक फ़र्ज़ है।
बाद में जांच से यह साबित हुआ कि  जेल में लड़के को बिना कुछ बिछाए नहीं सुलाया गया था, बल्कि उसके साथी ने रात को अधिक ठण्ड लगने पर उसके नीचे बिछी चादर खींच ली थी।

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...