Friday, December 14, 2012

सॉरी, रहीम

क्लास में शोर हो रहा था। बच्चे शरारत,चीख-पुकार,झगड़ा कर रहे थे।ऐसा लगता था जैसे क्लास में टीचर न हो। शोर सुनकर प्रिंसिपल उधर आ निकले। देख कर हैरान हुए कि  टीचर क्लास में ही है।
तमतमाते हुए क्लास में जा घुसे। उन्हें देख कर सब शांत हो गए। वे कुछ बोलते, इसके पहले ही एक बच्चा बोल पड़ा- "सर, हम संसद-संसद खेल रहे थे।"
-ओह,प्रिंसिपल साहब इत्मीनान से लौट गए।
वे अपने कक्ष में जा कर बैठ तो गए, किन्तु उन्हें लगा, कि  उन्होंने लौटने में कुछ जल्द-बाज़ी की है। कुछ भी हो, स्कूल में शोर तो हो रहा था। उन्हें किसी न किसी को इसका दोष देकर कुछ सज़ा तो देनी ही चाहिए थी। उन्होंने घटना से अपना ध्यान हटाने के लिए सामने पड़ा अखबार खोल लिया। पेज पर ऊपर ही एक बड़ा फोटो था- हामिद अंसारी और मायावती का। उन्होंने समाचार-पत्र बंद कर दिया।
अखबार रखते-रखते उनकी निगाह अखबार में छपे एक विज्ञापन पर गयी। लिखा था- "शहर को भिक्षा-वृत्ति से मुक्त बनाएं, मांगने वालों को भीख नहीं, सीख दें।"
उन्हें अपने बचपन में पढ़ा एक दोहा याद हो आया- "रहिमन वे नर मर चुके जे कहीं मांगन जाँय,तिनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसै नाहि।"
वे सोच में पड़  गए। जो मांगें, वे मरे समान? और जो न दें, वे भी मरे समान?
तो जीवित कौन? तो क्या उन्होंने दुनिया में जन्म लेने में भी जल्द-बाज़ी की है? ये सब मसले पहले तय तो हो जाते। वे सोच में पड़ गए।  
      

2 comments:

  1. मामला बड़ा बेढब है, लेकिन (प्रिंसिपल विवेक को) कोई मार्ग तो निकालना ही पड़ेगा|

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  2. सोच विचार को उद्द्यत करती बेहतरीन पोस्ट !

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हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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