मेरे बहुत से कवि मित्र कहते हैं,कि हम तो खूब कवितायें लिखते हैं, और भी लिखें, पर क्या करें, कोई पढ़ता ही नहीं।
मुझे लगता है, कि लोग उनकी कविताओं को ज़रूर पसंद करते होंगे, लेकिन उनके नाम को नहीं। वे थोड़ी देर के लिए अपनी कविताओं के पास से परे हट जाएँ, तो शायद लोग उन्हें पढ़ लें।
ठीक वैसे ही, जैसे आप चिड़ियों को दाना डालते हैं तो वे उड़ जाती हैं। आप वहां से हट जाइये, फिर धीरे-धीरे वे आ जायेंगी। दाना भी खा लेंगी। दरअसल वे आपके चंगुल में नहीं आना चाहतीं।
इसी तरह पाठक भी आपका मानस-आधिपत्य स्वीकारना नहीं चाहते। जब आप उनके सामने नहीं होंगे, तो वे आपको पढ़ लेंगे। उनमें जिज्ञासा भी है, और उन्हें मनोरंजन भी चाहिए। लेकिन जब तक अपनी रचनाओं पर आप लदे हैं, या आपका नाम लदा है, तब तक पाठक दूर से ही सलाम करेंगे।आपके सामने कैसे पढ़ें? आप उनके चेहरे के भाव ताड़ नहीं जायेंगे?
हाँ,एक बार आप ब्रांड बन गए तो फिर बात अलग है। आप लाख कहें कि मेरी ये रचना तो यूँही है, फिर भी वे उसे पढ़ डालेंगे। क्योंकि उन्हें आपके विचार में दिलचस्पी हो न हो , उन्हें ये तो सीखना है, कि 'ब्रांड' कैसे बनते हैं।
आप खुद सोचिये, यदि कपड़ा बुनने वाला जुलाहा,[ मुझे क्षमा करें, मैं गारमेंट फैक्ट्री के वर्कर को जुलाहा कह रहा हूँ] हर कपड़े पर अपना नाम लिखता जाए, तो आप अपने बदन पर ऐसा कपड़ा टांगना चाहेंगे? मैंने कहा न, ब्रांड की बात अलग है। क्योंकि ब्रांड तो सुन्दर विज्ञापनों से सज कर ही कोई बनता है।
मुझे लगता है, कि लोग उनकी कविताओं को ज़रूर पसंद करते होंगे, लेकिन उनके नाम को नहीं। वे थोड़ी देर के लिए अपनी कविताओं के पास से परे हट जाएँ, तो शायद लोग उन्हें पढ़ लें।
ठीक वैसे ही, जैसे आप चिड़ियों को दाना डालते हैं तो वे उड़ जाती हैं। आप वहां से हट जाइये, फिर धीरे-धीरे वे आ जायेंगी। दाना भी खा लेंगी। दरअसल वे आपके चंगुल में नहीं आना चाहतीं।
इसी तरह पाठक भी आपका मानस-आधिपत्य स्वीकारना नहीं चाहते। जब आप उनके सामने नहीं होंगे, तो वे आपको पढ़ लेंगे। उनमें जिज्ञासा भी है, और उन्हें मनोरंजन भी चाहिए। लेकिन जब तक अपनी रचनाओं पर आप लदे हैं, या आपका नाम लदा है, तब तक पाठक दूर से ही सलाम करेंगे।आपके सामने कैसे पढ़ें? आप उनके चेहरे के भाव ताड़ नहीं जायेंगे?
हाँ,एक बार आप ब्रांड बन गए तो फिर बात अलग है। आप लाख कहें कि मेरी ये रचना तो यूँही है, फिर भी वे उसे पढ़ डालेंगे। क्योंकि उन्हें आपके विचार में दिलचस्पी हो न हो , उन्हें ये तो सीखना है, कि 'ब्रांड' कैसे बनते हैं।
आप खुद सोचिये, यदि कपड़ा बुनने वाला जुलाहा,[ मुझे क्षमा करें, मैं गारमेंट फैक्ट्री के वर्कर को जुलाहा कह रहा हूँ] हर कपड़े पर अपना नाम लिखता जाए, तो आप अपने बदन पर ऐसा कपड़ा टांगना चाहेंगे? मैंने कहा न, ब्रांड की बात अलग है। क्योंकि ब्रांड तो सुन्दर विज्ञापनों से सज कर ही कोई बनता है।
गजब की बात है!
ReplyDeleteDhanyawaad.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने..आभार |
ReplyDeleteAgar tumhe bhi aisa anubhav hua to baat theek hi hogi.
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