प्रगति और विकास के साथ हमने अपने को बचाने के कई सफल उपाय कर लिए। जो लोग ला-इलाज बीमारियों से मरते थे, उनके लिए हमने पूरी नहीं, तो काफी मात्रा में जिंदगी की संभावनाएं पैदा कर लीं। पैदा होते ही जो शिशु जीवित नहीं रह पाते थे, उनकी दर हमने कम करने की लगातार कोशिश करके कुछ सफलता पा ली। युद्धों में सैनिकों का शहीद हो जाना बहुत सीमित हो गया। प्राकृतिक आपदाओं पर प्रभावी नियंत्रण कर लिया गया। जो लोग समाज-कंटकों द्वारा मार दिए जाते थे उनकी सुरक्षा के लिए काफी-कुछ कर लिया गया। प्रशासनिक तरीके से भी, और वैज्ञानिक तरीकों से भी।
लेकिन एक नासूर समाज में अब भी है, और वह दिनों- दिन बेख़ौफ़ और निरंकुश ही होता जा रहा है। वह है इस समाज में बलात्कार। इसके कारण चाहे जो भी हों, लेकिन यह अगर समाज में रहेगा, तो समाज को "असामाजिक" कहने से हमें कोई नहीं रोक सकता। इसके लिए कुछ न कुछ ठोस किया जाना बहुत ज़रूरी है। चाहे इसके लिए हमारे क़ानून को "क्रूर" ही क्यों न होना पड़े।
एक सुझाव स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के लिए भी। जिस तरह वे बचपन में ही कई भीषण बीमारियों को ता-उम्र रोके रखने वाले टीके बना देते हैं, क्या कोई ऐसा टीका नहीं विकसित किया जा सकता, जिसे बचपन में ही लगा देने पर कोई भी यौन सम्बन्ध बनाना तभी संभव हो जब यौन सहयोगी की "शारीरिक" सहमति प्राप्त हो, अन्यथा ऐसा प्रयास परवान ही न चढ़ सके।
लेकिन एक नासूर समाज में अब भी है, और वह दिनों- दिन बेख़ौफ़ और निरंकुश ही होता जा रहा है। वह है इस समाज में बलात्कार। इसके कारण चाहे जो भी हों, लेकिन यह अगर समाज में रहेगा, तो समाज को "असामाजिक" कहने से हमें कोई नहीं रोक सकता। इसके लिए कुछ न कुछ ठोस किया जाना बहुत ज़रूरी है। चाहे इसके लिए हमारे क़ानून को "क्रूर" ही क्यों न होना पड़े।
एक सुझाव स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के लिए भी। जिस तरह वे बचपन में ही कई भीषण बीमारियों को ता-उम्र रोके रखने वाले टीके बना देते हैं, क्या कोई ऐसा टीका नहीं विकसित किया जा सकता, जिसे बचपन में ही लगा देने पर कोई भी यौन सम्बन्ध बनाना तभी संभव हो जब यौन सहयोगी की "शारीरिक" सहमति प्राप्त हो, अन्यथा ऐसा प्रयास परवान ही न चढ़ सके।
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