Wednesday, December 26, 2012

उसकी आँखों में आंसू थे , इसलिए मैंने ऐसा कहा

वह बीच चौराहे पर बैठ कर गठरी बाँध रहा था। न जाने क्या-क्या था, सिमटने में ही नहीं आती थी गठरी। उसकी आँखों में आंसू थे। मुझे बड़ा अचम्भा हुआ, कोई इतना कुछ ले जा रहा हो,तो फिर रोने की क्या बात? मैंने उससे पूछ ही लिया- "बाबा तुम्हारे पास इतना ढेर सारा असबाब है, फिर क्यों रो रहे हो?"
उसने कातर दृष्टि से मुझे देखा, और बोला-"जितना है, उससे कहीं ज्यादा तो मैं छोड़ कर जा रहा हूँ।"
"अरे, तो उसे भी ले जाओ, तुम्हें कौन रोक रहा है?" मैंने कहा।
वह बोला - " बेटा ,  मैं उसे ले नहीं जा सकता, मुझे इजाज़त नहीं है। "
" तो फिर ख़ुशी-ख़ुशी जाओ, वैसे भी कुछ लेकर जाने से तो कुछ देकर जाना ही हमेशा अच्छा होता है।" मैंने कहा।
वह ग़मगीन होकर बोला- " बेटा , मुझे कुछ छोड़ कर जाने का गम नहीं है, मैं तो इसलिए उदास हूँ, कि  फिर अब मेरा यहाँ आना कभी नहीं होगा, मैं बस यहाँ चार दिन का मेहमान हूँ । " इतना कहते ही उसके आँसूं और भी तेज़ी से बहने लगे।
मैंने भरे गले से पूछा- " तुम्हारा नाम क्या है बाबा?"
वह बोला- "दो हज़ार बारह।"
मैंने उस से कहा- "ओह, तुम ख़ुशी से जाओ बाबा, खुदा हाफिज! तुम्हारे ये आंसू बेकार नहीं जायेंगे"
"क्यों?" उसने हैरत से कहा।
मैं बोला- "इस पानी में  दर्द घुले हैं,
               इस पानी में प्यास घुली है,
               इससे वाबस्ता हैं रिश्ते,
               इस पानी में आस घुली है,
               इस पानी में नमक है जब तक,
               तब तक है जीवन स्वादिष्ट!"



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